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________________ 15/श्री दान-प्रदीप गुणों के मध्य दान की मुख्यता ही विशेष रूप से देखने में आती है। गाय भी अगर सर्वांग-युक्त और उत्तम लक्षणोंवाली होने पर भी दूध न देती हो, तो उसका कोई आदर नहीं करता। इसी तरह दान-गुण-रहित मनुष्य उच्च वंश में उत्पन्न हुआ हो, स्वर्णाभूषणों से शोभित हो, अक्षुण्ण बल से युक्त हो, स्वरूपवान हो और लीलायुक्त गमन करता हो, तो भी दानरहित होने से वह मदवारि-रहित हाथी की तरह लोक में शोभित नहीं होता। विद्वद्जन व्यापार का फल धन की प्राप्ति को कहते हैं। उस धन का फल दान के बिना अन्य कुछ भी नहीं है। दान के अभाव में वह धन दुरन्त संसार में मात्र अटन करानेवाला ही है। अतः हे विवेकियों! दान करने से धन खत्म हो जायगा यह विचार भी मन में मत लाना। प्रत्यक्ष देखो कि कुएँ, उद्यान और गायें आदि दान के कारण ही क्षीण नहीं होती। भाग्य की अनुकूलता हो, तो व्यक्ति को अवश्य ही दान करना चाहिए, क्योंकि नसीब में जितना धन होगा, भाग्य उसे अवश्य पूर्ण करेगा। अगर भाग्य प्रतिकूल है, तो भी दान तो अवश्य ही करना चाहिए, क्योंकि अगर दान नहीं किया गया, तो प्रतिकूल भाग्य उस धन का सर्वथा नाश वैसे भी कर देगा। विविध प्रकार की समृद्धि प्राप्त होना दान की ही अद्भुत महिमा है, जिसका वर्णन अशक्य है। दानदाता मनुष्य अपने हाथ को तीर्थंकर के भी हस्तकमल पर रखता है। देव, नारक तिर्यंच योनि में हाथों से दान देना किसी भी रूप में सम्भव नहीं है। ऐसा विचार करके पुण्यवान मनुष्य दान देकर अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करता है। दान देनेवाले मनुष्यों को परभव में सौभाग्य, आरोग्य, अखण्ड आज्ञा, दीर्घायुष्य, अक्षीण भोग, ऐश्वर्य-लीला और स्वर्ग-सम्पदादि फल की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार कीर्ति, प्रतिष्ठा, सर्व लोक की अभीष्टता, कलंक का नाश, शत्रु के साथ मित्रता, राज-सम्मान और स्ववचन-प्रामाण्यादि इस भव में भी सम्भव होता है। ये सभी दान के फल हैं। यह दान ग्राहक शुद्धि, दाता शुद्धि और देश शुद्धि (जिसे अन्यत्र चित्त, वित्त और पात्र शुद्धि कहा गया है) से युक्त हो, तो सभी शुभ अर्थों की सिद्धि करनेवाला होता है। इसका कारण यह है कि सर्वत्र उपेय (प्राप्त करने योग्य पदार्थ) की सिद्धि में अवश्य ही गुण रूपी उपाय की अपेक्षा रही हुई है। आगम में कथित जिनचैत्य आदि सात प्रकार के पवित्र पात्र में दिये गये दान का यथाविधि उपयोग हो, तो वह दान ग्राहक-शुद्ध कहलाता है। जिसके चित्त में ईर्ष्या, पश्चात्तापादि दोष न हो, हर्ष व रोमांच द्वारा जिसका शरीर दैदीप्यमान हो, ऐसा विवेकी मनुष्य आशंसा-रहित जिस दान को देता है, वह दान दातृ-शुद्ध कहलाता है। न्याय से उपार्जित, एषणीय (42 दोषों से रहित) और अपने स्वामित्व में रहा हुआ उत्तम द्रव्य (पदार्थ) ऊपर कहे हुए सत्पात्र को विधिपूर्वक दिया जाय, तो वह दान देय-शुद्ध कहलाता है। इस प्रकार वृद्धि को प्राप्त करते हुए शुभ अध्यवसाय से युक्त जो मनुष्य उपर्युक्त तीन प्रकार के
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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