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________________ 249/श्री दान-प्रदीप फिर किसी समय जयमंत्री ने उसी विद्या के द्वारा राजा को परिवारसहित गाढ़ निद्रा में सुला दिया। पापी की विद्या पाप के लिए ही होती है। फिर अपने विश्वस्त सेवकों के द्वारा पलंगसहित राजा को एक विशाल, भयंकर व शून्य वन में छुड़वा दिया। दुष्टबुद्धि से युक्त मनुष्य के लिए कुछ भी अकृत्य नहीं होता। इस दुराचारी के मन में राजा को मरवाने का ख्याल भी नहीं आया-यह तो उस राजा के पूर्व के पुण्योदय का ही प्रभाव था। उसके बाद दुष्ट चेष्टायुक्त वह जयमंत्री पक्वान्न की शून्य दूकान की तरह और मक्खीरहित मधु की तरह इच्छानुसार राज्य का भोग करने लगा। उसने सामन्तादि को तो पहले ही द्रव्यादि देकर वश में कर लिया था। अतः सभी उसकी आज्ञा के आधीन होकर उसकी सेवा करने लगे। फिर धीरे-धीरे एकमात्र शृंगारसुन्दरी को छोड़कर बाकी सभी रानियों के साथ वह जयमंत्री दुराचार का सेवन करने लगा। ___ एक बार अत्यन्त रागान्ध होकर वह जयमंत्री श्रृंगारसुन्दरी से भी विविध प्रकार की मधुर वाणी के द्वारा प्रार्थना करने लगा। श्रृंगारसुन्दरी ने अत्यन्त कुपित होते हुए उसकी भर्त्सना की और कहा-"अरे दुष्ट! अरे निर्लज्ज! ऐसे पापी वचन मेरे सामने बोलने की तेरी हिम्मत भी कैसे हुई? प्राणान्त आने तक भी मेरे शील का लोप करने में कोई समर्थ नहीं है। कल्पान्तकाल में भी प्रचण्ड वायु के द्वारा क्या मेरुपर्वत कम्पित होता है? मोक्षलक्ष्मी का स्थान रूप शील मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है। अतः इस शील के लिए मैं मेरे जीवन का भी तृणवत् त्याग कर दूंगी। स्वामिद्रोह से उत्पन्न पाप के द्वारा तूं चण्डाल से भी ज्यादा निन्दनीय है। विवेकी पुरुष के लिए तेरा मुख देखना भी योग्य नहीं है। हे दुराचारी! तूं मेरे दृष्टिमार्ग से दूर हो जा, क्योंकि तेरा मुख देखने मात्र से भी मुझे दुरन्त पाप लगेगा।" इस प्रकार उसके द्वारा तिरस्कृत होकर जयमन्त्री क्रोध से धमधमायमान हुआ। अतः वह प्रतिदिन उसे पाँचसौ कोड़े मारने लगा। कसाई की तरह वह लोहे की संडासी के द्वारा उसके शरीर में से निर्दयतापूर्वक अनेक बार मांस के टुकड़े काटने लगा। कई बार तो वह दुर्बुद्धि निर्दयी उसके मुख और नासिका को बांध-बांधकर एक घड़ी तक उसे श्वासोच्छवास से रहित कर देता था। इस प्रकार परमाधामी देवों की तरह एक मास तक जीवन का अन्त करनेवाले निर्दयी उपायों के द्वारा उस रानी की कदर्थना की। फिर भी उस पतिव्रता ने उसके वचन अंगीकार नहीं किये। धन्य है वह सती! सतियों को अपना शील जितना प्रिय होता है, उतना अपना शरीर या जीवन नहीं। ___ एक बार जयमंत्री को उसके एक श्रेष्ठ बुद्धियुक्त मित्र ने कहा-“हे देव! यह शृंगारसुन्दरी महासती है। इसकी विडम्बना करना योग्य नहीं है। महासतियाँ शील की
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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