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________________ 248/श्री दान-प्रदीप उसकी बुद्धि का पार नहीं पा सकते थे। पर वह मन्त्री शंख की तरह अंतःकरण में अत्यन्त कुटिलता को धारण करता था। वह राजा का मात्र मधुर वाणी के द्वारा ही रंजन करता था। अतः सरल स्वभावयुक्त राजा सर्व प्रयत्न से सर्व कार्य करनेवाले उस मंत्री को देख-देखकर चित्त में आनन्दित होता था। 'किसी का विश्वास नहीं करना'-इस प्रकार की गुरुओं की राजनीति की शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद भी राजा ने जय को बाहर से सभी कार्यों में विश्वस्त तरीके से अंगीकार किया था। उस अप्रामाणिक मंत्री ने राजा को इतना अधिक वश में कर लिया था कि राजा ने उसे सर्व राजकार्यों में स्वतन्त्रता प्रदान की। अतः कामकाज से रहित बना राजा कामभोग में आसक्त हो गया। प्रायः निरुद्यमी पुरुष प्रमाद के द्वारा मर्दित होता है। स्वयं को प्रमाद के उपद्रव से दूर करने के इच्छुक पुरुष को निरन्तर धर्मकार्य में उद्यम करना चाहिए। स्वर्ण का रक्षण करनेवाले पुरुष का चित्त अन्य-अन्य स्थल में व्याकुल रहने से जैसे स्वर्णकार खुश होता है, वैसे ही निरन्तर विषयों में आसक्त राजा को देख-देखकर जयमंत्री खुश होता था। मुग्धता के कारण बिल्ली को दूध की रखवाली में नियुक्त करने के समान समग्र राज्य मन्त्री के आधीन करके राजा निरन्तर अंतःपुर में इच्छानुसार विलास करने लगा। वह राजा कभी सौभाग्य के द्वारा मनोहर स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करता, तो कभी पंचम राग से गाये जानेवाले संगीत में आनन्द प्राप्त करता। कभी सब कुछ भूलकर नृत्य देखने में तल्लीन बन जाता, तो कभी दीर्घ नेत्रोंवाली स्त्रियों के साथ जलक्रीड़ा करने लगता। कभी स्त्रियों द्वारा रचे गये पुष्पालंकार को धारण करता, तो कभी मूर्त्तिमान कामदेव के समान राजा रमणीय उद्यानों में रमण करता। कभी वासभवनों में, कभी गवाक्षों में और कभी महल की सर्वोपरि मंजिल पर विचरण करता। इस प्रकार देवों को भी दुर्लभ पाँच प्रकार के कामभोगों को भोगते हुए वह राजा मानो कामदेव रूपी वातरोग से पीड़ित की तरह कभी भी राजसभा को याद भी नहीं करता था। जैसे भूखा मनुष्य अपने पास भोजन से भरा हुआ थाल देखकर खाने के लिए उत्सुक होता है, वैसे ही जयमंत्री यत्न के बिना प्राप्त हुए राज्य को भोगने के लिए उत्सुक बना। अतः उसने प्रतिहारी, पुरोहित व अन्य प्रधानादि का वेतन बढ़ाकर उन्हें अपने आधीन कर लिया। वह बारम्बार विचार करने लगा कि मैं इस राजा को यहां से कब बाहर निकालूं? एक बार वह स्वयं राजा की तरह सभा में सिंहासन पर बैठा हुआ था। उस समय किसी विद्यासिद्ध पुरुष ने आकर उसे आशीर्वादपूर्वक नमन किया। यह तो कोई अद्भुत विद्वान पुरुष प्रतीत होता है-इस प्रकार विचार करके जयमंत्री ने उसका सन्मान करके उसकी इच्छानुसार भोजनादि का दान देकर उसे संतुष्ट किया। वह सिद्धपुरुष भी उसकी अकृत्रिम भक्ति के द्वारा प्रसन्न हुआ और अमात्य को उसने अस्वापिनी विद्या देकर संतुष्ट किया।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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