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________________ 14 / श्री दान- प्रदीप जिन्होंने अपनी वाणी से व शास्त्रामृत के प्रयोग से हम जैसे पत्थरों को आर्द्र किया है, उन भव का नाश करने में शक्तिमान और समस्त कलाओं को धारण करनेवाले श्रीजिनसुन्दरजी गुरुदेव सत्पुरुषों के लिए शुभ बनें। जैसे कि कला को धारण करनेवाला चन्द्र है, वह भी अपनी किरणों के प्रयोग से चन्द्रकान्त आदि पत्थरों को अमृत के द्वारा आर्द्र कर देता है । जिनके नाम रूपी अर्थ पर आरूढ़ होकर समग्र अर्थ की सिद्धियाँ स्वर्ग, मृत्यु व पाताल - इन तीनों लोकों रूपी क्रीड़ास्थान में स्वेच्छापूर्वक व सुखपूर्वक क्रीड़ा करती है, वे सभी (पाँचों) परमेष्ठि हमारी लक्ष्मी रूप बनें। इस प्रकार पूज्यों की स्तुति रूप भावमंगल करके जिनागम रूपी अग्नि में से अनेक प्रकार के अर्थ रूपी तेज को ग्रहण करके मैं जिनशासन रूपी घर में दान रूपी दीप को प्रज्ज्वलित करता हूं। समग्र प्रकार की दैवीय व मानुषी समृद्धि व मोक्ष-सम्पदा का उत्कृष्ट कारण धर्म ही है। अतः उस समृद्धि की वांछा रखनेवालों को उस धर्म का सेवन करना चाहिए, क्योंकि उपाय के बिना उपेय वस्तु की प्राप्ति नहीं होती। जिनेश्वरों ने इस धर्म को दान, शील, तप और भाव के रूप में चार प्रकार का कहा है। इसमें दान को सबसे प्रमुख बताया है, क्योंकि दान के द्वारा ही बाकी तीन धर्म स्थिर रहते हैं । वह इस प्रकार है -- जिनेश्वरों ने ज्ञानदान, अभयदान और उपष्टम्भदान- ये तीन प्रकार के दान बताये हैं। इनमें से ज्ञानदान के बिना कोई भी मनुष्य किसी भी प्रकार का धर्म स्वल्प मात्रा में भी नहीं कर सकता। अभयदान रूपी मेघ के वर्षण से तृण के अंकुरों की तरह सभी धर्म वृद्धि को प्राप्त होते हैं और उस वर्षण के अभाव में वे सूख जाते हैं - ऐसा पण्डित-पुरुषों ने कहा है । सुपात्र का पोषण करने से तीसरा उपष्टम्भ दान होता है। यह समग्र धर्म का उपकारक होता है, क्योंकि आधार में गुण उत्पन्न करने से उसमें रहे हुए आधेय गुणों की प्राप्ति अवश्य होती है। जो तीन प्रकार का -‍ - शील, तप और भाव धर्म सिद्धान्तों में कहा गया है, वह सर्व से तो यतियों में ही सम्भव है । पर उन यतियों को अन्नादि का उपष्टम्भ दान करने से उन शीलादि धर्मों का आराधन हो सकता है। इसका कारण यह है कि शरीर की स्थिति अन्नादि के आधीन है और शरीर ही धर्म का साधन है । इस प्रकार शीलादि तीनों प्रकार के धर्म का निमित्त दान ही है । अतः पण्डित पुरुष दान का ही प्रधानता से वर्णन करते हैं । अतः यह जानना चाहिए कि दानधर्म के सेवन में जिनका मन आसक्त है, वे ही शीलादि धर्म का अच्छी तरह से सेवन कर सकते हैं। जैसे राजा की यथाविधि सेवा करने से उसके पूरे परिवार की सेवा हुई- यह जाना जाता है । जिनेश्वरों ने भी सर्व प्राणियों को आनन्द-प्रदायक दान का सेवन एक वर्ष पर्यन्त किया और उसी के बाद चारित्र ग्रहण किया । केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद भी पर्षदा में पहले दानधर्म की देशना ही वे प्रदान करते हैं। लोक में भी सभी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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