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________________ 247/श्री दान-प्रदीप तरफ से घिरा हुआ है। उसने अन्याय रूपी विशाल तरंग-समूह से व्याप्त और मुश्किल से उलांघे जानेवाले व्यसन नामक समुद्र को क्षणभर में ही मूलसहित उखाड़ दिया है। महापराक्रमी कृष्ण, नल, रावण और पाण्डवों आदि ने व्यसन से ही महा-आपत्ति को प्राप्त किया था ऐसा शास्त्रों में सुना जाता है। सत्यकी विद्याधर महाविद्या से युक्त और सम्यक्त्वी था, फिर भी निरन्तर विषयासक्ति के कारण अकालमृत्यु के द्वारा दुर्गति को प्राप्त हुआ। बारहवें चक्रवर्ती ने प्रमादासक्ति के कारण सोलह वर्ष तक अन्धेपन को प्राप्त किया और मरकर सातवीं नरक में गया। मनुष्यों को जिस भी विषय में उन्मत्तता होती है, वह बिना मदिरापान के ही उत्पन्न होती है, चिरकाल तक रहती है और औषधि के द्वारा भी दूर नहीं होती। अतः हे वत्स! उस विषय में आसक्ति रखे बिना ही तुम प्रवर्तन करना। ऐसा करने से तूं लोक में उपहास का पात्र नहीं बनेगा। दुर्जनों की निन्दा का पात्र भी नहीं बनेगा। धूर्त तुम्हें नहीं ठग पायेंगे। स्त्रियाँ अपने मायाजाल में तुम्हें नहीं फंसा पायेंगी। कामदेव तुझे अपने वश में नही कर पायगा। राज्य का मद तुझे उन्मत्त नहीं कर पायगा। पण्डित पुरुष तुम्हारी स्तुति करेंगे। वैरी तेरा पराभव नहीं कर पायेंगे। गुरुजन तुम्हारा आदर-सत्कार करेंगे। प्रजा तुम्हारी स्तुति करेगी। इस प्रकार राज्य का पालन करने से तेरी बाह्य और आभ्यन्तर लक्ष्मी को इन्द्र भी हरण नहीं कर पायगा। दिन-प्रतिदिन वह वृद्धि को ही प्राप्त होगी। तुम स्वभाव से ही प्रवीण हो। सर्व सत्कृत्यों में अग्रणी हो। पर यह लक्ष्मी चतुर व्यक्ति को भी क्षणमात्र में चपल बना देती है। अतः हे वत्स! मैं तुम्हें बारंबार यही कहता हूं कि अब तूं पूर्वजों के द्वारा उठायी गयी राज्य की धुरा को धारण कर, जिससे मैं निष्कपट भाव से संयम रूपी ऐश्वर्य को ग्रहण कर पाऊँ। मनुष्यों के लिए समयानुसार कृत्य करना ही कल्याणकारक इस प्रकार शिक्षा रूपी अमृत के द्वारा अन्दर से और तीर्थों के जल द्वारा बाहर से रत्नपाल को स्नान करवाकर राजा ने उसे राज्य पर स्थापित किया। उसके बाद मायारहित राजा ने जिनचैत्यों में अट्ठाई महोत्सव करवाया। फिर पुत्र द्वारा किये गये निष्क्रमण महोत्सव के साथ उसने दीक्षा अंगीकार की। चिरकाल तक संयम का आराधन करके दुष्कर तपस्या का सेवन करके कैवल्य लक्ष्मी का वरण करके राजा मोक्ष में गया। फिर अज्ञान-अन्धकार का नाश करते हुए और नीति रूपी कमल को विकसित करते हुए रत्नपाल राजा उदयप्राप्त सूर्य की तरह शोभित होने लगा। उसके शृंगारसुन्दरी आदि हजारों स्त्रियाँ थीं। वे सभी अपने-अपने सौभाग्य द्वारा देवांगनाओं को भी पराजित करती थीं। उस राजा के समग्र कार्यों में जय नामक मन्त्री अत्यन्त धुरन्धर था। बृहस्पति भी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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