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________________ 246/श्री दान-प्रदीप रूपी नवजल का सिंचन करना पड़ता है अन्यथा कुमार्ग रूपी धूप के द्वारा सूख सकता है। और भी, हे वत्स! नवयौवनावस्था के द्वारा जो मद रूपी अन्धकार उत्पन्न होता है, उसे सूर्य या चन्द्र भेद नहीं पाते, रत्नों की कान्ति उसका छेदन नहीं कर सकती, दीपक की प्रभा भी उसे दूर नहीं कर सकती। हे वत्स! राज्यमद रूपी अन्धता विकस्वर कमल के समान नेत्रोंवाले मनुष्य को भी अन्धा बना देती है। वह अन्धता अंजन के प्रभाव से दूर नहीं हो सकती। एकमात्र यौवन की मदाग्नि गुण रूपी अरण्य को भस्मीभूत कर देती है। तो फिर वह अग्नि राज्य के मद रूपी वायु से युक्त हो जाय, तो उसका क्या कहना? हे वत्स! क्या तुम नहीं जानते? कि यह लक्ष्मी क्षीरसागर में साथ रहने के परिचय के कारण कल्पवृक्ष के नवांकुरों से राग, विष से मोहनता, कौस्तुभ मणि से अत्यन्त कठोरता, चन्द्रखण्ड से वक्रता तथा मदिरा से उन्माद ग्रहण करके बाहर निकली है। चिरकाल से पिता समुद्र के संसर्ग-परिचय से उनके तरंगों की चंचलता प्राप्त हो जाने से लक्ष्मी किसी भी स्थान पर स्थिरता को प्राप्त नहीं होती। सरस्वती के साथ सपत्नी का भाव होने से सरस्वती का आलिंगन किये हुए पुरुष के पास वह लक्ष्मी नहीं जाती। खर्च के प्रयास से मानो भयभीत होती हो इस प्रकार से वह दातार के पास भी नहीं जाती। शूरवीर का कण्टक की तरह वह दूर से ही परित्याग कर देती है। विनयवंत को तो वह कलंकिनी के समान सामने भी नहीं देखती। मानो अपवित्र हो-इस प्रकार मानकर गुणवानों का तो स्पर्श भी नहीं करती। उन्मत्त की तरह वह चतुर पुरुषों का उपहास करती है। रूप, राजा, कुल, बल, शौर्य, व धैर्य को देखकर भी लक्ष्मी स्थिरता को प्राप्त नहीं होती। जैसे वेश्या एकमात्र धन को ही देखती है, वैसे ही लक्ष्मी एकमात्र पुण्य को ही देखती है। अतः लक्ष्मी की चाहना रखनेवालों को एकमात्र पुण्य का उपार्जन करने में ही यत्न करना चाहिए। जिनका मन विषयों में आसक्त हो, उनके लिए पुण्यकार्य कठिन प्रतीत होता है, क्योंकि व्यसन बाह्य और आन्तरिक-दोनों सम्पदाओं का नाश करता है। अपार व्यसन की आसक्ति रूपी मदिरा के द्वारा पुरुष के चैतन्य का नाश होता है। अतः उसे बाह्य और आभ्यन्तर शत्रु सरलता से छल सकते हैं। यह साम्राज्य रूपी दृढ़ मूलवाले वृक्षकेश रूपी स्कन्ध के द्वारा विशाल स्कन्धयुक्त है, राजा के द्वारा अद्भुत छायावाला है। पुत्र-पुत्री की संतति के द्वारा विस्तार को प्राप्त शाखा–प्रशाखाओं से व्याप्त है। विविध प्रकार के रत्न, स्वर्ण और विद्रुम के द्वारा अत्यन्त विकसित पल्लवों से युक्त है। यश रूपी पुष्पों की सुगन्ध के समूह के द्वारा याचकों रूपी भ्रमरों को लुभानेवाला है। भिन्न-2 देश के कलानिपुण लोगों रूपी पक्षियों के समूह ने उसका आश्रय लिया हुआ है। बड़े-बड़े प्रासादों के द्वारा वह ऊँचाई से युक्त है। सैनिकों रूपी पत्तों के द्वारा वह चारों
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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