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________________ 244/श्री दान-प्रदीप यह सुनकर सभी राजा एक-दूसरे के मुख को देखने लगे, क्योंकि अग्नि में प्रवेश करते ही मृत्यु होती है इसमें कोई संशय नहीं है। 'अब क्या करें?' इस प्रकार वे सभी विचार विमूढ़ बन गये। उनका मुख निस्तेज हो गया। सभी ने अपने मुख नीचे कर लिये और कुछ भी जवाब देने में शक्तिमान नहीं बन पाये। तब मंत्री ने फिर से कहा-"मैं निर्णय लेने के लिए आप सभी को तीन दिन की मोहलत देता हूं। आपलोगों को तीन दिन बाद जो उचित लगे, वही करना।" यह सुनकर आश्चर्यचकित होते हुए सभी राजा अपने-अपने आवासों में लौट गये। वह कन्या भी नगर के पास रही हुई श्वेतवती नदी के किनारे रची हुई चिता के समीप अग्नि में प्रवेश करने का निश्चय करके तीन रात्रि तक वहीं रही। चौथे दिन कौतुक से व्याप्त चित्तवाले सभी राजा वहां आये। मंत्री ने पूर्व के समान उनसे फिर वही प्रश्न पूछा । तब उन सभी राजाओं ने अत्यन्त हास्यपूर्वक मंत्री से कहा-"जिसने वरमाला स्वीकार की है, वही उससे परिणय करेगा।" यह सुनकर रत्नपाल ने खड़े होकर हाथ ऊपर करते हुए आक्षेपपूर्वक कहा-"मैं पराक्रमियों में मुख्य हूं। आप सभी की तरह कायर नहीं हूं। ऐसा दुष्कर उपाय करके भी मैं इस स्वयंवरा से विवाह करूंगा। महासत्त्वयुक्त पुरुष प्राणान्त तक भी स्वीकृत कार्य का त्याग नहीं करते। जब तक सत्य से शोभित महापुरुष किसी भी कार्य को अंगीकार नहीं करते, तब तक ही वह कार्य विषम गतियुक्त प्रतीत होता है। साहसपूर्वक जीनेवाले महापुरुषों के लिए तो सर्प भी पुष्पमाला की तरह ही प्रतीत होता है, अग्नि जल के समान लगती है, विष अमृत के समान प्रतीत होता है, समुद्र पृथ्वीतल के समान प्रतीत होता है, देव उनकी सेवा करने में रसिक बनते हैं और विकट व भयानक अटवी घर के आँगन के समान प्रतीत होती है। अतः हे राजाओं! आप सभी देखें। मैं इसके साथ चिता में प्रवेश करूंगा और आपलोगों की कीर्ति के साथ ही इस कन्या से पाणिग्रहण करुंगा।" इस प्रकार वह बोल ही रहा था कि उस कन्या ने चिता में प्रवेश किया। उसके पीछे तुरन्त नेपथ्य में जैसे नटी के पीछे नट जाता है, वैसे ही रत्नपाल ने भी चिता में प्रवेश किया। उस समय हाहाकार करते हुए नगरजनों के द्वारा रोके जाने पर भी दासी ने कुमारी के कहने पर चिता में आग लगा दी। चिता में अग्नि जाज्ज्वल्यमान बन गयी। सभी लोग खेदखिन्न हो गये। पर स्वयंवर में आये हुए ईर्ष्यालू राजा हर्षित होकर हँसने लगे। उधर मंत्री ने पूर्व के तीन दिनों में चिता के अन्दर द्वारयुक्त एक गुप्त सुरंग खुदवा दी थी। वे दोनों अग्नि के प्रज्ज्वलित होने के साथ ही उसी सुरंग से होकर निर्विघ्न महल में प्रवेश कर गये। अदृश्य अंजन के द्वारा उनके नेत्र आँजे गये हो-इस प्रकार से उन दोनों को महल में प्रवेश करते
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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