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________________ 13/श्री दान-प्रदीप || ॐ श्रीआदिनाथाय नमः ।। ।।प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीष्वराय नमः ।। महोपाध्याय श्रीचारित्ररत्नगणिविरचित श्री * दान-प्रदीप-भाषान्तर * * प्रथम प्रकाश श्रीसिद्धि के भर्त्ता और सुमंगला के स्वामी भगवान श्रीआदिनाथ जिनेश्वर सभी को मंगल प्रदान करें। उन्हीं भगवान से दानधर्म की शुरुआत हुई है। उसी दानधर्म के कारण आज तीनों लोक के प्राणी सुखी हैं। जिन भगवान के दैदीप्यमान वचन-समूह के द्वारा आज तक जगत निरन्तर प्रकाशित है, उस अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करनेवाले श्रीवर्द्धमान स्वामी रूपी अद्भुत-अलौकिक सूर्य तत्त्व-प्रकाशक बनें। विशुद्धि से शोभित पण्डितों के मानस में विलास करने की इच्छुक देवी राजहंसिनी की तरह जैसे तत्त्व-अतत्त्व का विवेचन करती है, वह जिनवाणी रूपी श्रीसरस्वती देवी हमें श्रुतज्ञान का सार प्रदान करें। जो गुरु मात्र कलि रूप पंक में डूबते हुए श्रीजिनशासन का उद्धार करने से ही गौतम गणधर की तुल्यता को धारण करते थे, इतना ही नहीं, बल्कि उत्तम गुणों रूपी लक्ष्मी के द्वारा गौतमस्वामी की उपमा को प्राप्त थे, वे श्री देवसुन्दर नामक गुरुदेव विभूति रूप बनें। जिन्होंने दृढ़ धर्म रूपी विद्या के द्वारा मोह को जीतकर जयलक्ष्मी को वरा है, वे तपागच्छ के स्वामी श्रीसोमसुन्दरजी नामक उत्तम गुरु महाराज जयवन्त हैं।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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