SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 228 / श्री दान- प्रदीप जो परिणाम में विशेषता दिखायी देती है, उसका कारण प्राणियों के पूर्वकृत विविध प्रकार के कर्म ही हैं। हे राजा ! इन दोनों ने पूर्वजन्म में जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, वह मैं बताता हूं। तुम सभी सावधान होकर सुनो अद्भुत लक्ष्मी द्वारा शोभित जिस नगरी ने, जैसे कमलिनी सरोवर को शोभित करती है, वैसे भरतक्षेत्र को शोभित किया है, वैसी कांती नामक नगरी है। उसमें शंख के समान गम्भीर ध्वनियुक्त और स्वभाव से निर्मल शंख नामक श्रेष्ठी रहता था । पर वह शंख की तरह अंतःकरण की कुटिलता से रहित था- यह आश्चर्य है। जैसे अगस्त्य के उदय से सभी जलाशय निर्मल हो जाते हैं, वैसे ही धर्म के उपयोग के द्वारा उसकी समग्र कलाएँ निर्मल थीं । उसके पद्मश्री नामक प्रिया थी । वह साक्षात् पद्म में वास करनेवाली लक्ष्मी की तरह शोभित होती थी। उसने अपने शील रूपी सुगन्ध के समूह से सर्व दिशाओं को वासित किया था । उसके असंख्य पुण्य के लावण्य से युक्त पुण्यश्री नामक पुत्री थी । वह वरनेवाले के लिए साक्षात् पुण्यश्री- पुण्यलक्ष्मी ही हो उस प्रकार से शोभित होती थी । उस श्रेष्ठी के धन्य और पुण्य नामक दो चाकर थे । वे विविध कर्म करने में निपुण, ईमानदार और विनय की खान थे। उन दोनों में से शुद्ध बुद्धि से युक्त धन्य साधुओं की संगति धर्म में रागी था। दूसरा कर्म की विचित्रता के कारण वैसा न था । एक बार श्रेष्ठी ने संसार रूपी नाटक के पूर्वरंग के समान अपनी कन्या का पाणिग्रहण उत्सव प्रारम्भ किया। उस उत्सव में अपने अच्छे पुण्य से प्रेरित हुए हों, इस प्रकार से उस श्रेष्ठी ने ओदनादि पाक - सामग्री तैयार करने में उन दोनों कर्मकरों को नियुक्त किया । उस अवसर पर मानो संसार सागर में से भव्यों को तारने के लिए इच्छा करते हो, इस प्रकार से हाथ में तुम्बड़ा लेकर पाप रहित दो साधु उस पाकस्थान पर आये। उन्हें देखकर धन्य- - पुरुषों में मुकुट के समान पुण्य बुद्धि से युक्त धन्य पुण्यफल लेने के लिए हर्षपूर्वक उठ खड़ा हुआ। अपने सन्मुख आती हुई सीमारहित अद्भुत सम्पत्ति को लेने के लिए जा रहा हो - इस प्रकार उन साधुओं के सम्मुख प्रसन्नतापूर्वक सात-आठ कदम गया। उनको भक्तिपूर्वक विधियुक्त प्रणाम करके उसने कहा - "हे पूज्यों! प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा प्रदान करें कि आप यहां किस हेतु से पधारें हैं ?" यह सुनकर उनमें से ज्येष्ठ साधु ने कहा - " विशाल परिवार से युक्त हमारे गुरु महाराज विहार करते हुए इस नगरी के बाहर पधारे हैं। उनमें तपस्वी, शैक्षक, स्थविर और क्षुल्लक आदि मुनि लम्बे विहार के कारण थक गये हैं । वे अत्यन्त तृषित हैं। उनके लिए प्रासुक जल लाने के लिए हम नगरी में घूमते-घूमते यहां आये हैं ।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy