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________________ 229/श्री दान-प्रदीप यह सुनकर धन्य का शरीर हर्ष से रोमांचित हो उठा। पुण्यशाली को भी मान्य करने लायक उसने उनको विनयपूर्वक विज्ञप्ति की-"जो पुरुष आपको हर्षपूर्वक श्रेष्ठ वस्तुएँ देते हैं, धरती पर वे ही पुरुष श्रेष्ठ हैं। उन्होंने ही पृथ्वी पर सारयुक्त जन्म धारण किया है। अर्थात् उन्हीं का जन्म सफल है। पर हम इस घर के स्वामी नहीं हैं। अतः हम वैसा दान देने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि धनरहित व्यक्ति कलम जाति के चावल बो नहीं सकता। अतः जो यह कुण्डी में चावलों का धोया हुआ पानी है, वह फेंकने लायक होने से हमारे स्वाधीन है। अतः इसे ग्रहण करके हम पर अनुग्रह करें।" ___ इस प्रकार दान रूपी कल्पवृक्ष की क्यारी रूपी वचनों को वह धन्य बोल रहा था, तभी अपुण्यवन्तों में अग्रसर पुण्य ने कहा-“हे मित्र! ये साधु मायावी, अन्य जनों को ठगने में कुशल, असत्य बोलने में चतुर और शौच आचार से रहित होते हैं। निन्दनीय इन साधुओं के मुख को देखना भी उचित नहीं है। अतः हे भाई! इनको पानी देना भी तेरे लिए योग्य नहीं है।" इस प्रकार दान का निषेध करके अपने सुख का निषेध करनेवाले उस पुण्य को धन्य ने क्रोधित होते हुए कहा-"अरे पापी! कानों में शूल उत्पन्न करनेवाले ये पापी वचन तुम क्यों बोलते हो? ऐसे दुष्ट वचन बोलते हुए तुम्हारी जिह्वा क्यों नहीं कटी? सर्व पाप के व्यापारों से निवृत्त हुए, एकमात्र पुण्यकार्य में प्रवृत्त और गुण-सम्पदा के द्वारा अत्यधिक उच्चता को प्राप्त ये साधु जगत-पूज्य हैं। जो मदान्ध होकर इन साधुओं की निन्दा करते हैं, वे भव-भव में दुःखों की खान को ही प्राप्त करते हैं। जो मुनीश्वरों की निन्दा करते हैं, उन्हें निन्दा रूपी पापकर्म दुर्भाग्य की खान प्रदान करता है, अत्यन्त भयंकर दारिद्र्य देता है, कीर्ति का नाश करता है, दुर्गति प्रदान करता है, आपत्ति को बुलावा देता है, पाप को दैदीप्यमान बनाता है और धर्म का नाश करता है। मुनिनिन्दा प्राणियों को क्या-क्या दुःख नहीं देती? अन्य प्राणियों की निन्दा भी विविध प्रकार के अनर्थों को करनेवाली होती है, तो फिर जिन्होंने सर्व संग का त्याग किया है और जिन्होंने मुक्तिमार्ग पर ही प्रयाण किया है, ऐसे मुनियों की निन्दा अनर्थ करनेवाली होती है-इसका तो कहना ही क्या? अतः हे भाई! आज के बाद तूं मुनीश्वरों की निन्दा मत करना। आत्महित चाहनेवाला कौनसा पुरुष आत्मा के लिए अहितकारक कार्य करेगा? जगत में पूजने लायक ये मुनि ही दान के योग्य हैं, क्योंकि इन्हें दिया गया दान ही अनंतगुणा फल प्रदान करता है।" इस प्रकार भक्तिपूर्वक वचनों की युक्ति रूपी जलधारा का सिंचन करने से दान-पुण्य रूपी कल्पवृक्ष को अत्यन्त वृद्धि प्राप्त करवाते हुए पुण्यबुद्धि से युक्त उस धन्य ने अपने हर्ष के समान अत्यधिक व अपनी आत्मा के समान निर्मल चावलों का धोया हुआ पानी मुनियों
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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