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________________ 227/श्री दान-प्रदीप समय भी गाढ़ स्नेहयुक्त भद्र ने उसे फिर से अतुल धन प्रदान किया। समृद्धियुक्त बन्धु अगर आपत्ति में पड़े हुए बन्धु का उद्धार न करे, तो उसे दुष्ट ही मानना चाहिए। इस प्रकार बड़े भाई को छोटे भाई ने 21 बार धन प्रदान किया। महाशयवान पुरुष उपकार करने में कभी उद्विग्न नहीं होते। बार-बार उसे धन देने पर भी वह बार-बार क्षीण होता गया। बारंबार सूर्य के ताप में स्थापित किया हुआ जल क्या रह सकता है? राक्षसी के समान दरिद्रता ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। बड़ा भाई धन देने में तो समर्थ था, पर कर्म की अनुकूलता करने में समर्थ नहीं था। "अहो! भद्र के भाग्य का वैभव कैसा जागृत और अभंग था। इतनी बार छोटे भाई को धन देने के बावजूद भी उसका धन वृद्धि को ही प्राप्त हुआ। उधर वह छोटा भाई नाम से ही अतिभद्र नहीं था, बल्कि अर्थ से भी 'अतिभद्र था, क्योंकि अपने बड़े भाई से जिस दिन से अलग हुआ था, उस दिन से उसका भद्र नहीं हुआ। जरूर इसने पूर्वभव में किसी को दान नहीं दिया होगा अथवा देनेवाले का निषेध किया होगा, अन्यथा उसका धन बार-बार हानि को क्यों प्राप्त होगा? दोनों भाइयों का व्यापार एक समान था, लगायी गयी मूल रकम भी एक समान थी, रूप भी एक समान था और कुल भी एक समान था। पर फिर भी पुण्य और अपुण्य के प्रभाव से इन दोनों में कितना अन्तर है।" -इस प्रकार बालक से राजा-पर्यन्त सभी लोगों के जिह्वा रूपी रंगमण्डप में नटी की तरह उन दोनों की कीर्ति तथा अपकीर्ति की प्रसिद्धि नृत्य करती थी। एक बार धर्मोपदेश का दान करने के ही स्वभाव से युक्त और विकस्वर विशेष ज्ञान से शोभित श्रीशील नामक सूरिराज वहां पधारे। यह सुनकर राजा, भद्र, अतिभद्र और सभी पुरजन अत्यन्त हर्षित होते हुए उन्हें वन्दन करने के लिए गये। सभी ने गुरुदेव को विधिपूर्वक वन्दन किया और यथास्थान बैठ गये। तब मुनीश्वर ने अमृतरस के समान धर्मदेशना प्रदान की। देशना के अन्त में राजा ने श्रीगुरु महाराज से पूछा-'हे पूज्य! ये भद्र व अतिभद्र-दोनों भाई एक साथ जन्मे हैं। दोनों का जन्म-लग्न समान होने पर भी उन दोनों के अलग हो जाने पर बड़े भाई की समृद्धि निरन्तर बढ़ती जा रही है और छोटे भाई की समृद्धि हानि को प्राप्त हो रही है। इसका कारण बताकर हमारे कर्णों का पारणा करवायें, जिससे इस परिषदा के सभी मनुष्य प्रसन्न हो जायं।" तब श्री गुरुदेव ने स्पष्ट अर्थ का निर्णय करनेवाली वाणी के द्वारा कहा-“हे राजा! इन दोनों के विषय में शुभ और अशुभ कर्म ही कारणभूत हैं। समग्र साधन समान होने पर भी 1. कल्याण का उल्लंघन किया हुआ अर्थात् कल्याण/पुण्य से रहित।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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