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________________ 218/श्री दान-प्रदीप करेगा। (अर्थात् तेरे दुःख का निमित्त मैं बनूंगा, जिससे उसका पाप मुझे ही लगेगा। इससे मेरे कर्मों का उदय रूपी अग्नि ज्यादा बढ़ेगी।) और भी, तुम्हें तो अहंपूर्विका के द्वारा अनेक राजपुत्र वर सकते हैं, क्योंकि केतकी के पुष्प पर कौन-कौनसे भ्रमर उत्सुक नहीं होते? अतः तुम मुझ पर कृपा करके मुझ पर प्रसन्न होकर अन्य स्थान पर चली जाओ, क्योंकि यह रात्रि गुप्त कार्य करने के लिए कामधेनु के समान है।" इस प्रकार कहकर वह चुप हो गया। उस समय उसके चरणों पर दृष्टि स्थिर करके वह चतुर कन्या धीरजपूर्वक व खेद के साथ बोली-“हे प्राणेश! इस विषय में राजा का लेशमात्र भी दोष नहीं है। पर अवश्य भोगने-लायक मेरे अपने पूर्वकर्मों का ही दोष है। संपत्ति और विपत्ति का स्वामी-राजा कर्मविपाक ही है। उसके अलावा तो सभी उस कर्म रूपी राजा के किंकर हैं। आपने मुझे जो अन्य स्थान पर जाने का अयोग्य वचन कहा है, वह अग्नि के समान मेरे हृदय को जला रहा है। ऐसा धर्म तो वेश्याओं का होता है, कुलवान स्त्रियों का नहीं। बुद्धिमान मनुष्य नीच मनुष्यों का आचरण अंगीकार नहीं करते। चाहे पति कुरुप ही क्यों न हो, कुलवती स्त्रियों के लिए पति ही गति है। लताएँ सूखे हुए वृक्ष का त्याग नहीं करती। आपके संग से मेरे बाह्य अंगों का नाश होगा, पर कभी नाश को प्राप्त न होनेवाला मेरे पतिव्रता-धर्म का आचार जीवनभर जीवित रहे-मैं यही चाहती हूं। हे देव! स्त्रियों को भव-भव में अच्छे सौभाग्यवाला पति मिलना सुलभ है, पर जीवनभर निर्मल शील पालना दुर्लभ है। सर्व दोषों के निवास करने के स्थान रूप स्त्रीजाति का जन्म अत्यन्त निन्दित है। उसमें भी अगर शील न हो, तो वह स्त्रीजन्म पापी से भी महापापी है। कुलवती स्त्रियों का उत्कृष्ट आभूषण शील ही है। बाहर के आभरणों का आडम्बर तो मात्र अभिमान के सुख के लिए ही है। कहां सभी सुखों की खान और मेरुपर्वत की तरह विशाल शील की महिमा और कहां सरसों के दाने के समान दुःखदायक विषयसुख? ऐसे तुच्छ सुख के लिए मेरे जीवन रूपी शील का मैं कैसे नाश करूं? कौन बुद्धिमान पीतल के लिए स्वर्ण का नाश करे । अतः हे देव! जिन्दगीभर के लिए आप ही मेरे शरणरूप हैं। हे स्वामी! मेरे प्राण भी आपके मार्ग का ही अनुसरण करनेवाले हैं अर्थात् आपके साथ ही मेरे प्राण भी जानेवाले हैं। इस प्रकार आप अपने चित्त में निश्चय करके हे प्रभु! अब कभी ऐसी दावानल की ज्वाला के समान वचन मत बोलना।" इस प्रकार पुण्य रूपी उद्यान को विकस्वर करने में जलधारा के समान उसके वचन सुनकर विद्याधर अत्यन्त हर्षित हुआ और उसके वचनों को अंगीकार किया। फिर उसने विचार किया-"अहो! यह स्त्री वय से लघु होने पर भी इसका शील उज्ज्वल और अद्भुत है। सूर्य की उगती हुई प्रभा भी दैदीप्यमान ही होती है। मेरे सोये बिना यह पतिव्रता भी नहीं
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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