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________________ 217/श्री दान-प्रदीप बोलते हुए पक्षियों का समूह नाद कर रहा था। राजा के राग के साथ अपनी समानता बताते हुए संध्याकाल का राग क्षणभर रहकर ही नष्ट हो गया। कन्या पर प्रीति रखनेवाली उसकी माता आदि पारिवारिक-जनों के हृदय में दुःख का समूह न समाने से मानो बाहर निकल आया हो इस प्रकार अन्धकार का समूह चारों तरफ व्याप्त हो गया। उसकी ऐसी दशा देख-देखकर प्रिय सखियों की तरह मानो समग्र दिशाओं का मुख अत्यन्त मलिन हो गया था। क्या यह कन्या कुष्ठी पति का त्याग कर देगी या नहीं?-इस कौतुक के कारण आकाश के तारे मानो विकस्वर नेत्रयुक्त बन गये थे अर्थात् देखने के लिए उत्सुक बन गये थे। उसके बाद मदनमंजरी ने रात्रि में पति के लिए यथायोग्य शय्या बिछायी। उसके पैर धोये और पैर दबाकर देव की तरह उसकी आराधना करने लगी। यह सब देखकर मन में विश्वास पैदा हो जाने से कुष्ठी के कपट-वेशधारी उस विद्याधर राजा ने विचार किया-“उस गाथा के चौथे पाद का अर्थ वास्तव में सत्य सिद्ध हुआ है। अहो! मैं इस प्रकार से कोढ़ी बना, फिर भी मुझे इस प्रकार की भोग-सामग्री प्राप्त हुई। अतः सुख देने में एकमात्र मेरा पुण्य ही मुख्य है। इस स्त्री की भी कर्म पर कितनी आश्चर्यकारक दृढ़ता है, कि इसने महान विस्तृत भोगों को भी तृणवत् माना। इसके सत्य रूपी कवच की दृढ़ता किसके द्वारा प्रशंसनीय न होगी? कि जिस कवच को मेरे विवाह की विडम्बना रूपी शस्त्र भी छेद नहीं पाया। इसका यह पतिव्रता का आचरण किसके मन में विस्मय पैदा न करेगा? कि स्वयं राजपुत्री होने के बाद भी मुझ कुष्ठी की इस प्रकार से सेवा–आराधना कर रही है। इसकी सत्यता, निष्कपटता, धर्म और धैर्य आदि गुण यथार्थ रूप से वाणी के मार्ग के मुसाफिर कैसे बन सकते हैं? फिर भी विनोद के लिए इसकी कुछ परीक्षा की जाय।'' इस प्रकार विचार करके आनन्दपूर्वक धीमे स्वर में कहा-“हे भद्रे! मैं तो पूर्वकृत कर्म का फल भोग रहा हूं, पर स्त्रियों में शिरोमणि रूप तुम्हारी यह दशा किस प्रकार हुई? तुमने राजा का कुछ भी अविनय किया होगा-ऐसा तो विचार भी दिल में नहीं आता, क्योंकि चन्द्र की लेखा में से विष की वृष्टि कैसे हो सकती है? निश्चय ही इसमें तो राजा के अविवेकीपने का विलास दिखायी देता है। क्या लक्ष्मी रूपी मदिरा पण्डित को उन्मत्त नहीं बनाती? हे भद्रे! तुम्हारी यह कान्ति, यह रूप, तुम्हारी बुद्धि और तुम्हारी वय-ये सभी मेरे लिए अन्धे के अलंकार के समान निष्फल है। छाछ की संगति से खीर की तरह मेरे शरीर के संग से तुम्हारी यह रूप-सम्पत्ति क्षणभर में ही विनाश को प्राप्त हो जायगी। मेरे पूर्वकर्म के उदय रूपी जाज्ज्वल्यमान अग्नि में तेरी विडम्बना से उत्पन्न हुआ पाप रूपी घी आहुति का काम
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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