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________________ 219/श्री दान-प्रदीप सोयेगी।" ऐसा विचार करके वह कपटनिद्रा में सो गया। उसके बाद पति को अपने वचन अंगीकार करते हुए देखकर प्रसन्न होती हुई वह कन्या पंच परमेष्टि का स्मरण करके निद्राधीन हो गयी। उन दोनों के बातचीत करने के दौरान ही अधिकतर रात्रि बीत ही चुकी थी। इसके साथ ही उस कन्या की दुर्दशा भी समाप्त हो चुकी थी। अपना कार्य सिद्ध हो जाने से उस विद्याधर राजा ने कामसाधिनी विद्या का स्मरण करके नट की तरह अपना मूल स्वरूप प्रकट किया। फिर वहीं पर पन्द्रह मंजिल का स्फटिक मणि से निर्मित अपने पुण्यसमूह के समान उज्ज्वल व विशाल महल बनाया। उस महल के सबसे ऊपरी आकाश को छूती हुई मंजिल के अन्दर रत्न के सिंहासन पर वह स्वयं बैठा। स्वर्णालंकारों से स्वयं दैदीप्यमान बना। स्वर्णस्तम्भों पर रही हुई पुतलियाँ उत्तम गीतों के द्वारा मदनमंजरी सहित उसके गुणों को गा रही थी। पिण्डिभूत बना हुआ उसका यश मानो उज्ज्वल छत्र के रूप में उसके मस्तक पर शोभित हो रहा था। पुण्य की श्रेणि के समान चामरों की श्रेणि से वह शोभित हो रहा था। स्थगीधर और प्रतिहार आदि परिवार उसके चारों और खड़ा था। उसके सामने वेश्याओं का समूह अखण्ड नृत्य कर रहा था। उच्च स्वर में बजते हुए वाद्यन्त्रों की ध्वनि नगर के लोगों को जागृत बना रही थी। कपूरादि की श्रेष्ठ सुगन्ध सर्व दिशाओं को वासित कर रही थी। इस प्रकार वह विद्याधर राजा तत्काल अपनी विद्या के प्रभाव से मानो पृथ्वी पर निवसित इन्द्र की तरह शोभित हो रहा था। उस समय उसकी प्रिया भी जागृत होकर उत्तम अलंकारों और वस्त्रों से शृंगारित अपने शरीर को तथा उसी प्रकार से शृंगारित अपने पति को देख-देखकर आश्चर्य को प्राप्त हुई कि क्या यह इन्द्रजाल है? या मति का भ्रम है? क्या यह स्वप्न है या किसी देव की रचना है? इस प्रकार विचार करते हुए अंतःकरण में विस्मय, शंका? तर्क-वितर्क आदि से आकुल-व्याकुल बनी उस प्रिया को विद्याधर राजा ने शुरु से अन्त तक की अपनी कथा बतायी। फिर कहा-“हे देवी! मेरे इच्छित कार्य की परीक्षा तो उसी समय सिद्ध हो गयी थी, जब मेरा विवाह तुम्हारे साथ हुआ था। पर फिर भी तुम्हारी परीक्षा करने के लिए ही मैंने इतना विलम्ब किया। अहो! तुम्हारा सत्य अत्यन्त उग्र है। अहो! तुम्हारा सत्त्व अद्भुत है। अहो! तेरा शील अत्यन्त निश्चल है। अहो! तेरी बुद्धि अत्यधिक निर्मल है। ये सभी गुण तुममें तत्काल फलीभूत हुए हैं, क्योंकि हे प्रिये! अब तूं एक महान विद्याधर राजा की प्राणेश्वरी बन चुकी है। मेरी निर्मलता-प्रसिद्धि तो सर्वत्र पृथ्वीतल पर जागृत ही है, पर तेरे पिता का दुष्ट अभिप्राय विनाश को प्राप्त हो और 'एकमात्र धर्म ही सर्व सुख-सम्पत्ति का
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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