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________________ 211 / श्री दान- प्रदीप एक बार वह कनकरथ राजा आश्चर्य देखने के कौतुक से रात्रि के समय 'वीरचर्या के द्वारा अकले ही अपने महल में से निकला। कहा भी है नीचाः स्वदेहसंतुष्टा मध्यमा धनबुद्धयः । उत्तमाः सततं तत्तदद्भुतैककृतादराः । । भावार्थ:-नीच (कनिष्ठ) मनुष्य अपने शरीर में ही संतुष्ट रहते हैं, मध्यम पुरुष धन प्राप्त करने की बुद्धि से युक्त होते हैं और उत्तम पुरुष निरन्तर उस-उस प्रकार के अद्भुत नजारों को देखने में आदरयुक्त होते हैं। वह चतुर राजा आश्चर्यों से युक्त अपनी नगरी को देखते हुए किसी स्थान पर होते हुए नाटक को देखने के लिए रुक गया और फिर किसी देवकुल में जाकर रहा। वहां गवैये मधुर स्वर में संगीत कर रहे थे। उसमें गायी जानेवाली यह एक गाथा को उसने अपने कर्णों का अतिथि बनाकर सुना हँसा सव्वत्थ सिया सिहिणो सव्वत्थ चित्तिअंगरुहा | सव्वत्थ जम्ममरणे सव्वत्थ वि भोइणं भोआ ।। भावार्थ:-हँस सभी जगह श्वेत ही होते हैं, सर्वत्र मयूरों के पंख रंग-बिरंगे ही होते हैं, सर्वत्र जन्म और मरण रहे हुए हैं और भोगियों को सर्वत्र भोग मिला ही करते हैं । यह गाथा सुनकर राजा उसके अर्थ का गहन चिन्तन करने लगा, क्योंकि विवेकी पुरुषों के मध्य जो उत्तम होता है, वह मात्र श्रवण करके ही उसको स्वीकार नहीं करता। उस गाथा के अर्थ का अच्छी तरह से निश्चय करके राजा ने मन में विचार किया - " इस गाथा के तीन पादों का अर्थ तो बराबर मिलता है, पर चौथे पाद का अर्थ किस तरह बराबर होगा? क्योंकि भोगी पुरुषों को भोग उस-उस प्रकार के योग के बिना अत्यन्त दुर्लभ होना चाहिए। जहां भोग की सामग्री होती है, वहीं भोगियों को भोग प्राप्त होता है। अगर कोई राजा अकेला वन में गया हो, तो क्या वहां वह रंक के समान नहीं बन जाता ? जैसे मैं मेरे राज्य में भोगों को भोगता हूं, वैसे ही परदेश में भी बिना किसी की सहायता के अकेला ही अगर मैं भोगों को प्राप्त करूं, तो चौथे पाद के अर्थ को बराबर युक्तियुक्त मानूं। अतः सत्यता के लिए उसकी परीक्षा करना ही योग्य है । कसौटी पर कसे बिना स्वर्ण की शुद्धता कही नहीं जा सकती इस प्रकार विचार करते हुए राजा महल में आया। फिर प्रातःकाल होने पर मंत्री को अपना अभिप्राय बताया और कहा - "मैं इस कार्य के लिए यहां से सौ योजन दूर रहे हुए 1. गुप्त रीति से करना ।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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