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________________ 210/श्री दान-प्रदीप इस प्रकार विचार करके प्रीतिपूर्वक सम्पूर्ण शरीर के द्वारा रोमांचित होते हुए दान देने के समय सर्व सावध व्यापारों से निवृत होकर स्पर्धा, आशंसा और यशःकीर्ति आदि अशुभ परिणाम रूपी दोषों से दूषित हुए बिना दातार जो दान देता है, वह दातृशुद्ध कहलाता है। ___ महाव्रत को धारण करनेवाले, पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त, धर्म का उपदेश करनेवाले, भिक्षा मात्र से आजीविका चलानेवाले, तप के निधान और इस भव में दातार का उपकार करने में पराङ्मुख साधु चारित्र धर्म की सिद्धि के लिए जो दान ग्रहण करते हैं, वह ग्राहकशुद्ध कहलाता है। जिस मनुष्य की सिद्धि निकट भविष्य में होनेवाली है, वही इन तीन प्रकार की विशुद्धि से युक्त दान कर सकता है, क्योंकि आम्रवृक्ष में फल लगने का समय नजदीक आता है, तभी उसमें मंजरी लगती है। यह पात्र और अपात्र का विचार मोक्ष फलयुक्त दान में ही देखा जाता है। अनुकम्पा आदि दान तो सत्पुरुषों के लिए सर्वत्र उचित है। इस विधि के द्वारा ही पुरुष चित्त की वृत्ति पवित्र रखकर सुपात्र को अन्न का दान करता है, वह कनकरथ नामक विद्याधर राजा की तरह शीघ्रता से समग्र प्रकार की लक्ष्मी को प्राप्त करता है। उसकी कथा इस प्रकार है इस भरतक्षेत्र में रत्नों की खानों से व्याप्त वैताढ्य नामक पर्वत है। उसके शिखर अरिहन्तों के चैत्यों की श्रेणि से शोभित हैं। विविध प्रकार के रत्नों के द्वारा सुशोभित वह पर्वत भरतक्षेत्र की पृथ्वी रूपी स्त्री के सिन्दूर से पूरित मांग की शोभा को निरन्तर धारण करता है। उस पर्वत के उत्तर और दक्षिण में दो श्रेणियाँ रही हुई हैं। वे आकाश में बिना आधार के रहे हुए पहले और दूसरे देवलोक के समान शोभित होती हैं। वहां दक्षिण श्रेणी को शोभायमान बनाने में कनक के भूषण के समान कनकपुर नामक प्रसिद्ध पुर है। उसमें महल कनक-निर्मित होने के कारण अत्यन्त शोभित होते हैं। उसमें अजेय शत्रुराजाओं का मथन करनेवाला कनकरथ नामक विद्याधर राजा अपनी आज्ञा का विस्तार करता था। पूर्वपुण्य से प्रेरित के समान उसके पिता ने दीक्षा अंगीकार करते समय उसको बाल्यकाल में ही साम्राज्य के ऊपर स्थापन किया था। सर्व विद्याधरों में अग्रसर उसने बाल्यावस्था में ही लक्ष्मी रूपी लता के पल्लवों को उत्पन्न करने में जल की धारा के समान अनुपम और अद्भुत विद्याएँ सिद्ध की थीं। उसके द्वारा राजा से युक्त हुई सम्पूर्ण दक्षिण श्रेणी केवल शोभित ही नहीं होती थी, बल्कि जगत् में अद्भुत उन-उन धैर्यादि गुणों के द्वारा वह श्रेणि 'उत्तर रूप भी थी। 1. दक्षिण श्रेणि कभी उत्तर श्रेणि नहीं बन सकती, अतः विरोध आता है। उसके परिहार के लिए उत्तर अर्थात् प्रधान/मुख्य थी-यह अर्थ करना चाहिए।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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