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________________ 212/श्री दान-प्रदीप ताम्रचूड़ नामक नगर में जाता हूं। तुम कल सैन्य के साथ वहां आना।" यह कहकर राजा तत्काल आकाशमार्ग से चल पड़ा। कौतुकी मनुष्य क्या किसी कार्य में आलस्य करता है? फिर राजा ने विचार किया कि परदेश जाने पर भी मेरे शरीर की आकृति मनोहर होने से और दैदीप्यमान उत्तम वेष होने के कारण लोक में मेरी मान्यता होगी। ऐसा विचार करके राजा ने अपने शरीर को झरते कोढ़ से युक्त और खराब आकृतिवाला बनाया। रंक मनुष्य की तरह आकर नगर के चौराहे पर खड़ा हो गया। उस ताम्रचूड़ नामक नगर में उस समय इन्द्र के समान बिना किसी सहायता के स्वयं बलवान तथा नाम व अर्थ से चरितार्थ जितारि नामक राजा राज्य करता था। उसके लावण्य रूपी जल की नदी के समान, सर्व स्त्रियों में शिरोमणि और निर्मल शील को धारण करनेवाली धारिणी नामक पत्नी थी। उस रानी की कुक्षि से उत्पन्न सर्व प्रकार से आश्चर्यकारक सौभाग्य के वैभववाली और कामदेव रूपी आम्रवृक्ष की मंजरी के समान मदनमंजरी नामक पुत्री उस राजा के थी। असाधारण गुणों के द्वारा वह किसके द्वारा आदर-सम्मान करने लायक नहीं थी? क्योंकि गुण ही गौरव/आदर/सत्कार का पात्र होते हैं। गुणों के बिना कोई भी पुत्र हो या पुत्री, सर्वमान्य नहीं बन सकते। वह कन्या बाल्यावस्था से ही जिनधर्म में निपुणता को प्राप्त थी। एक दिन राजा अपनी सभा में बैठा हुआ था। उस समय नमन करते हुए अनेक राजाओं के मुकुटों की श्रेणि के द्वारा उसके चरण शोभित हो रहे थे। राज्यलक्ष्मी के मद के उन्माद के कारण उसका शरीर पुष्ट बना हुआ था। इन्द्र की प्रभुता को भी वह तृण से भी तुच्छ मानता था। अन्य राजाओं को वह किंकर के समान मानता था। बंदीजनों के समूह द्वारा की गयी श्लाघा रूपी पवन के द्वारा वह चपलता को प्राप्त था। विस्तृत छत्र से मानो ढ़के गये हों इस प्रकार से उसके आभ्यन्तर नेत्र ढ़क गये थे। वेश्याजनों के हाथ में रहे हुए वीजते चामरों से उत्पन्न हुई वायु के द्वारा मानो दिग्भ्रमित हो गया हो इस प्रकार उसके विवेक रूपी दैदीप्यमान दीपक बुझ गये थे। नमस्कार करने के लिए आयी हुई पुत्री मदनमंजरी को उसने अपनी गोद में बिठाया हुआ था। उस समय सद्गुरु के समान शिष्यों की तरह विनय सहित अपने सन्मुख रहे हुए श्रेष्ठीयों, सामन्तों और मंत्रियों को उस राजा ने कहा-“हे सभासदों! तुम सभी विचार करके कहो कि ऐसी अद्भुत संपत्ति तुमलोग किसकी कृपा से भोगते हो?" इस प्रकार राजा की वाणी का मदिरा की तरह पान करके विवेक रहित हुए वे सभी मदोन्मत्त की तरह बोले-“हे देव! आप ही हमारे दैवत हो। आप ही पृथ्वी पर विधाता हो। हे राजा! आप ही कल्पवृक्ष हो। आप ही चिन्तामणि रत्न हो। आप हर्ष से जिसकी तरफ भी एक नजर डाल देते हो, उस पर हर्षित हुई समग्र लक्ष्मी कटाक्ष करती है। अतः दैदीप्यमान
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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