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________________ 188 / श्री दान- प्रदीप पुरुष विधि के अनुसार धर्म का आराधन करने में समर्थ होते हैं। मोक्ष प्राप्त करने में भी ऐसे ही पुरुष समर्थ होते हैं। इनके सिवाय अन्य कोई भी समर्थ नहीं हो सकता है और ऐसे कष्टों को सहन करके परलोक में सुख की प्राप्ति होती ही है - यह तो सौगन्ध देकर सत्य कहलवाने के समान है। जो पुरुष काम प्राप्त होने पर भी अधिक सुख प्राप्त करने के लालच में कामों का त्याग करते हैं, वे वानर की तरह अपार पश्चात्ताप ही करते हैं । उसकी कथा इस प्रकार है : एक अरण्य में परस्पर प्रीतियुक्त वानर और वानरी रहते थे । वे पल भर भी एक-दूसरे के वियोग को सहन नहीं कर पाते थे । वे मानो एक डोर से बंधे हुए हों - इस प्रकार वृक्ष पर चढ़ने-उतरने, फुदकने आदि सभी क्रियाओं को साथ-साथ ही किया करते थे। एक दिन गंगा नदी के किनारे वानरी के साथ क्रीड़ा करता हुआ वानर वानीर (नेतर) के वृक्ष पर से अचानक पृथ्वी पर गिर गया। उस तीर्थ के प्रभाव से वह वानर तुरन्त ही, मानो विद्या सिद्ध की हो - इस प्रकार से देवकुमार के समान मनुष्य के सुन्दर रूप को प्राप्त हुआ। उसे उस रूप में देखकर वानरी भी उसी प्रकार पृथ्वी पर गिरी और देवांगना के समान नारी रूप को प्राप्त हुई । परस्पर नवीन उत्पन्न हुए प्रेम के अतिशय को धारण करते हुए पहले की ही तरह रात्रि - दिवस वियोगरहित चिरकाल तक उन्होंने विलास किया। किसी दिन पति ने अपनी प्रिया से कहा—“जैसे हम पहले वृक्ष से गिरकर तिर्यंच की जगह मनुष्य रूप को प्राप्त हुए, उसी प्रकार अब मनुष्य की जगह देव रूप को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ।" तब प्रिया ने कहा- "हे स्वामी! देवपने से हमें क्या प्रयोजन? हम तो मनुष्य के भोगों को भोगते हुए अत्यन्त संतुष्ट हैं। असन्तोष तो सर्व दुःखों की खान है ।" इस प्रकार उसके निषेध करने के बावजूद भी अत्यन्त लोभाविष्ट होकर वह मूढ़ पुनः वृक्ष पर चढ़कर पूर्ववत् पृथ्वी पर गिरा। उस तीर्थ का प्रभाव ही ऐसा था कि तिर्यंच गिरे, तो मनुष्य बने और मनुष्य गिरे, तो देव बने । पर अगर कोई दुबारा वृक्ष से गिरे, तो वह अपने पूर्वरूप में आ जायगा । अतः वानर के जीव के पुनः झंपापात करने से वह पुनः तिर्यंच बन गया। उसे वानर बना हुआ देखकर उसकी स्त्री ने पुनः झंपापात नहीं किया, क्योंकि वह पुनः तिर्यंच नहीं बनना चाहती थी । एक दिन उस अत्यन्त रूपवती अकेली स्त्री रूपी वानरी को देखकर उसे पकड़कर राजा को सौंप दिया, क्योंकि जो स्त्री स्वामी - रहित होती है, उसका स्वामी राजा ही होता है। राजा ने मनोहर आकृतियुक्त उस स्त्री को अपनी पट्टरानी बना लिया, क्योंकि सुन्दर लक्षणों से युक्त आकृति लक्ष्मी की साक्षी होती है।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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