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________________ 187/श्री दान-प्रदीप रात्रि करोड़ प्रहर के समान लम्बी लगेगी। अतः रात्रि का सुखपूर्वक निर्गमन करने के लिए हमें कोई आश्चर्यकारक और मनोहर रस से युक्त कथा की प्रस्तावना करनी चाहिए।" यह सुनकर राजा भी 'दिव्य भाषा से युक्त वचनों को बोलते हुए ये काष्ठ के पाये कौनसी कथा कहेंगे?' इस प्रकार विचार करके आश्चर्ययुक्त होते हुए सावधान हो गया। फिर उन चारों पायों में से प्रथम पाये ने वाचालतापूर्वक बोलना शुरु किया-"शास्त्रों में चार प्रकार के पुरुषार्थों का वर्णन है, उनमें से काम पुरुषार्थ ही प्रधान है, क्योंकि उसमें ही एकान्त सुख समाया हुआ है। यही काम उदार शब्द, रूपादि भोग-विलासमय है। अतः विश्व में मनोहर यह काम ही सर्व प्रकार के सुख का कारण है। क्षुधा, तृषादि से उत्पन्न हुआ जो दुःख अनुभव में आता है, वह प्रकाश के अभाव में अन्धकार की तरह काम के अभाव में ही अनुभव में आता है। काम की तरह धन में एकान्त सुख का कारण नहीं माना जाता, क्योंकि धन की प्राप्ति करने में, खर्च करने में और रक्षण करने में दुःख समाया हुआ है। कहा है कि जो दुर्गम अरण्य और समुद्रादि में गमन करना पड़ता है, नीच पुरुषों की सेवा करनी पड़ती है, जो माता-पिता और बंधुवर्ग को मारता है, जो चोरी आदि दुष्कर्म करवाता है, जो समग्र रात्रि जागरण करवाता है तथा जो दीन वचनादि कहलवाता है, वह सब जगत को आकुल-व्याकुल बनानेवाली सर्वप्रसिद्ध धन की ही दुश्चेष्टा है। अगर कदाचित् कामभोग में धन का उपयोग होता है, तो ही वह सुखकारक बनता है, अन्यथा मम्मण सेठ की तरह दुःखदायक ही बनता है। धर्म और मोक्ष तो धूर्तजनों की कल्पना रूपी शिल्पकला के द्वारा कल्पित हैं। ये दोनों तो प्रत्यक्ष के विषय से दूर होने के कारण अमौजूद और अतात्त्विक हैं। जो कहा जाता है कि प्राणियों के पूर्व के पुण्य और पाप के योग से ही शुभ और अशुभ होता है, इसमें भी एकान्त नियमा नहीं है, क्योंकि कोई पत्थर तो प्रतिमा के रूप में पूजा जाता है, तो कोई पत्थर पैरों की ठोकरें खाता है। इसमें पुण्य-पापादि का कोई कारण नहीं है। जिस मोक्ष में रूप, रस, गंध, स्पर्श,वचन, वर्ण, इच्छा, बुद्धि, सुख, दुःखादि कुछ भी नहीं है, उस मोक्ष में और आकाशपुष्प में कुछ भी अन्तर नहीं है अर्थात् मोक्ष तो कल्पना मात्र है। कदाचित् धर्म और मोक्ष को तात्त्विक मान भी लिया जाय, तो भी ये दोनों बुद्धिमान पुरुषों द्वारा आदर करने योग्य नहीं है, क्योंकि बुद्धिमान पुरुष तो सुखाभिलाषी होते हैं और धर्म व मोक्ष तो दुःखपूर्वक साध्य होते हैं। कष्ट सहन करने से ही वे सिद्ध होते हैं। जैसे-जो भयंकर उपसर्गों को सहन करते हैं, जो निरन्तर बड़ी-बड़ी तपस्याओं के द्वारा समग्र शरीर को सुखाते हैं, जो अत्यधिक मल का स्थान होते हैं, जो सभी मनोहर पदार्थों के समूह में इन्द्रियों का नियमन करते हैं, जो अत्यन्त शीत व ताप से उत्पन्न कष्टों को निरन्तर सहन करते हैं और जो कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं को करने में अत्यन्त धैर्यवान होते हैं, वैसे ही
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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