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________________ 182 / श्री दान- प्रदीप I निरन्तर नीति रूपी लता को विकस्वर करने में मेघ के समान था । युद्ध में वह प्रत्येक शत्रु का पंचत्व करता था, पर फिर भी वह शत्रु कुल का क्षय करनेवाले के रूप में प्रसिद्ध हुआ था अर्थात् एक-एक शत्रु का पाँचगुना करने से उनके कुल की वृद्धि होनी चाहिए, जिससे वह क्षय करनेवाला न बन सके और इससे कुल का क्षय करने के रूप में विरोध आता है उसका परिहार करने के लिए पंचत्व अर्थात् मरण करता था । इसी कारण वह शत्रुकुल का क्षय करनेवाले के रूप में प्रसिद्ध हुआ । उस राजा के पृथ्वी पर स्वर्ग से उतरी देवी के समान कमला नामक रानी थी, जो मात्र नेत्रों के निमेष के कारण ही मनुष्य - स्त्री प्रतीत होती थी । शील रूपी आभ्यन्तर भूषण से वह सदैव भूषित रहती थी। पर फिर भी व्यवहार से बाह्य अलंकारों को धारण करती थी । उस राजा के अनेक रानियाँ होने पर भी वही रानी अधिक प्रिय थी। पुष्प की अनेक जातियाँ होने के बावजूद जाई पुष्प की अधिक मान्यता होती ही है। सभी प्रकार से मनोहर विशाल राज्य का उपभोग करते हुए उस राजा के दिवस प्रहर के समान व्यतीत हो रहे थे, पर उसके राज्य की धुरी को धारण करनेवाला एक भी पुत्र पैदा नहीं हुआ। अतः अत्यन्त खेदयुक्त होकर एक दिन राजा विचार करने लगा - "जरावस्था मेरे शरीर को पिशाचिनी की तरह जीर्ण बनाने के लिए उतावली हो रही है। मेरे मस्तक पर धर्मराजा के दूत के आगमन की तरह सफेद बाल भी आने लगे हैं। पर अभी तक मैंने अपने कुल के मण्डन रूप पुत्र को देखा नहीं है, जिससे वृक्ष रूपी उस पुत्र का आश्रय लेकर मेरे राज्यलक्ष्मी रूपी लता की वृद्धि हो । यह राज्यलक्ष्मी विशाल परिवार से युक्त होने पर भी सितारों से युक्त पर चन्द्ररहित आसमान की तरह पुत्र के बिना शोभित नहीं होती । पुत्र को राज्य पर स्थापित करके बाद में मैं दीक्षा ग्रहण करूंगा- मेरा चिरसंचित यह मनोरथ कैसे पूर्ण होगा? मेरे पूर्वज धन्य थे, जिन्होंने वृद्धावस्था देखने से पहले ही अपने पुत्र को राज्य पर स्थापित करके तपस्या करने के लिए निकल पड़े।" इस प्रकार चिन्तातुर और पुत्र - प्राप्ति का उपाय करने में तत्पर वह राजा वर्षों की तरह दिवस व्यतीत करने लगा। एक बार राजा ने त्रिकालवेत्ता निमित्तज्ञ से पूछा - "हे विद्वान ! मेरे पुत्र कब होगा? वह कैसा होगा?" यह सुनकर चर्मचक्षु से न देखने योग्य सर्व हकीकत को ज्योतिषी शास्त्र रूपी चक्षुओं के द्वारा देखकर निमित्तज्ञ ने राजा से कहा - "हे राजन! राज्य का भार उठाने में धुरन्धर पुत्र तुम्हे प्राप्त होगा। पर उसका संभव पुण्य के प्रभाव से ही है - ऐसा प्रतीत होता है । अतः हे राजा! एकमात्र अगण्य पुण्य का विस्तार करो, क्योंकि मन की वांछा पूर्ण करने में एकमात्र पुण्य ही चिंतामणि रूप है।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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