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________________ 183 / श्री दान- प्रदीप इस प्रकार कर्णौ में अमृत की वृष्टि के समान उसकी वाणी का श्रवण करके प्रसन्न हुए राजा ने अत्यधिक द्रव्य देकर उसे विदा किया। फिर 'स्वयं को इष्ट था और वैद्य ने भी कह दिया - इस कहावत के अनुसार उसके वचनों को मान्य करते हुए राजा ने और अधिक सर्वज्ञ-कथित धर्म में अपने आपको एकाग्र किया। उसने रानी के साथ प्रासाद बनवाने में, प्रतिमा भरवाने में, जिनपूजा करना, गुरु की सेवाभक्ति करना, दान देना, अमारि प्रवर्त्तन करवाना, दुष्कर तप करना और श्रीतीर्थ की यात्रा करना आदि धर्मकार्यों के द्वारा निर्मल और अनूठा पुण्य एकत्रित किया, जिससे उसके समग्र पाप शीघ्रता के साथ उड़ गये। जिस प्रकार आकाश अत्यधिक उज्ज्वल बादलों से ढके हुए सूर्य को धारण करता है, वैसे ही कितने ही समय के बाद शुभाशयी रानी कमला ने पुण्यवंत गर्भ को धारण किया। उसी रात्रि उसने अमंद सुगंध में लुब्ध हुए भ्रमरों के समूह से शोभित हाथी को स्वप्न में देखा । प्रातः काल होने पर पुत्रोत्पत्ति के साक्षी रूपी उस स्वप्न को राजा से कहा । वह स्वप्न राजा के कर्णों का अतिथि बनकर राजा को अत्यन्त प्रसन्न कर गया । जैसे रोहणाचल की पृथ्वी रत्नों का प्रसव करती है, उसी प्रकार अनुक्रम से काल पूर्ण होने पर रानी ने दैदीप्यमान कान्ति के समूह द्वारा सूतिका गृह को प्रकाशित करनेवाले पुत्ररत्न का प्रसव किया। यह सुनकर राजा ने अनुक्रम से नगरजनों को सुखकारक और समग्र याचकों को खुश करनेवाले पुत्रजन्म का महोत्सव किया। फिर पूज्यवर्ग की पूजा करने के बाद राजा ने करि के स्वप्नानुसार उस पुत्र का करिराज नाम रखा । वृद्धि को प्राप्त करते हुए कुमार के साथ चन्द्र की स्पर्द्धा कैसे की जा सकती थी? क्योंकि इस कुमार ने 72 कलाओं को प्राप्त किया था और चन्द्र के पास तो सिर्फ 16 कलाएँ ही होती हैं। समय आने पर राजा ने कुमार को उत्सवपूर्वक निर्मल लावण्य रूपी जल की नदी के समान मनोहर अंगों से युक्त रमणियों के साथ विवाह के बंधन में बांध दिया । एक बार वन की दावाग्नि के समान संसार से उत्पन्न हुए ताप को नवीन मेघों की तरह समाते हुए और समतारस से युक्त गुरु के धर्मोपदेश को सुनकर हस्ति राजा ने वैराग्य रस से अपने मन को पूरित किया । अतः विष के समान विषयसुख से विमुख हुए राजा ने विशाल उत्सवपूर्वक अपने पुत्र करिराज को साम्राज्य पर स्थापित किया । फिर स्वयं ने विराट महोत्सवपूर्वक प्रशस्त दीक्षापथ का आश्रय लिया । शुद्ध बुद्धियुक्त नरजन कभी भी आत्महत करने में प्रमाद नहीं करते। उन राजर्षि ने अद्भुत दुष्कर चारित्र को अनेक वर्षों तक निरतिचारपूर्वक पालन करके उत्तम गति को प्राप्त किया। उधर स्वर्ग के राज्य की तरह अपने विशाल समृद्धियुक्त राज्य का उपभोग करते हुए और सर्व तेजस्वियों में श्रेष्ठ वह करिराज राजा शोभित हो रहा था ।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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