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________________ 181/श्री दान-प्रदीप अंत में निर्मल चारित्र का पालन करके केवलज्ञान-केवलदर्शन को प्राप्त करके पद्माकर मोक्ष में गया। __इस पद्माकर के उदाहरण से मुनियों को शयनदान देने में अगण्य पुण्य है- ऐसा सुनकर पवित्र भावयुक्त हे सुज्ञजनों! तुम अच्छी तरह से शय्यादान में यत्न करो। || इति पंचम प्रकाश।। षष्ठम प्रकाश अहो! जिनका (दान की प्रसिद्धि रूपी) दीपक आज तक प्रज्ज्वलित है, ऐसे हे विश्व के पावक आदिनाथ! प्रकाश करो। अब निर्दोष आसन का दान करने रूप तथा पुण्य समूह के अंकुर रूप में उपष्टम्भ दान का तीसरा भेद कहा जाता है। विविध प्रकार के सूक्ष्म जीवों के समूह से व्याप्त केवल भूतल पर मुनियों के बैठने के लिए तीर्थंकरों ने आज्ञा प्रदान नहीं की है। अतः वर्षाकाल में काष्ठमय प्रासुक आसन पर मुनि विराजते हैं। चातुमार्स के अलावा शेषकाल में मुनि ऊन के आसन पर विराजते हैं। अतः पुण्यशाली श्रावक निरन्तर समयानुसार अत्यन्त भावयुक्त बनकर मुनियों को आसनदान करे। जो मनुष्य प्रसन्न चित्त के द्वारा मुनियों को इस प्रकार के आसन का दान करता है, उसे अवश्य ही स्वर्ग व मोक्ष रूपी महल में आसन मिलता है। जिनके आसन पर सुखासीन होकर मुनि वाचना, अध्यापनादि क्रियाओं को साधते हैं, वे पुरुष धन्य व पुण्यवंत हैं। मुनियों को आसन दान करनेवाले पुरुष को चारित्र की प्राप्ति सुलभ होती है, क्योंकि मुनियों की चारित्र क्रिया में उसने सहायता प्रदान की है। जो मनुष्य मुनीश्वरों को आसन का दान करता है, उसे अगले भव में इन्द्र, चक्रवर्ती आदि का आसन सुलभ रूप में मिलता है। जो यतियों को आसनदान करता है, वह करिराज की तरह विशाल पुण्यलक्ष्मी का स्वामी बनता है। आसनदान पर करिराज की कथा भरतक्षेत्र की पृथ्वी का भूषण कंचनपुर नामक नगर है। वह नगर स्वर्ण महलों के द्वारा उत्कृष्ट शोभा को प्राप्त था। उस नगर में धर्म, अर्थ और काम-ये तीनों पुरुषार्थ परस्पर बाधारहित और अत्यन्त प्रीतियुक्त होकर मानो मैत्रीभाव से युक्त होकर शुद्ध रीति से प्रवर्तित होते थे। उस नगर में शत्रुओं का नाश करनेवाला हस्ती नामक राजा राज्य करता था। वह
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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