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________________ 180/श्री दान-प्रदीप को देख-देखकर वह श्रेष्ठी निरन्तर 'मैं धन्य धन्य हूं' इस प्रकार विचार करके अपनी आत्मा को कृतार्थ मानता था। उसकी वह अनुमोदना रूपी निर्मल चन्द्रिका शय्यादान के पुण्य रूपी महासमुद्र को निरन्तर तरंगयुक्त बनाती थी। उस अगण्य पुण्य के प्रभाव से वह नंदन सेठ स्वर्ग में देवांगनाओं के भोग को प्रिय हुआ। वहां उसने अभंग व अद्भुत विस्तारयुक्त स्वर्ग के भोगों का उपभोग किया और यहां यह पद्माकर के रूप में उत्पन्न होकर दिव्य सुखों का निधि बना है। अक्षयनिधि के समान शय्यादान के पुण्य से प्रेरित उसके पिता तिलक श्रेष्ठी-जो स्वर्ग में देव बने हैं-वे उसके स्नेह से प्रेरित होकर जिस प्रकार गोभद्र सेठ ने अपने पुत्र शालिभद्र को दिव्य ऋद्धि प्रदान की थी, उसी प्रकार इच्छानुसार विविध प्रकार के स्वर्ण महलादि अद्भुत संपत्ति दिव्य शक्ति से प्रदान कर रहे हैं। कहा है कि–'पुण्यशाली के पूर्वजन्म का पुण्य विघ्न का हरण करता है, विपत्तियों को छेदता है, लक्ष्मी का पोषण करता है, पापों का नाश करता है, राज्यलक्ष्मी का विस्तार करता है, प्रतिष्ठा का उदय करवाता है, सख को पृष्ट बनाता है तथा देवताओं को किंकर बनाता है अर्थात् क्या-क्या निःसीम नहीं करता?" इस प्रकार गुरुकथित और कर्णों को सुख प्रदान करनेवाले अपने पूर्व के दो भवों को कर्णगोचर करके पद्माकर ने विचार किया-'अहो! शय्यादान का कितना पुण्य है! ऐसा विचार करके शुद्ध अंतःकरणयुक्त बनकर ऊहापोह करते हुए जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त हुआ। फिर हर्ष से पुष्ट बनकर उसने श्रीगुरुमहाराज को प्रणाम करके विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर कहा-“हे प्रभु! हे भगवान! आपने जो मेरे पूर्वभवादि के बारे में बताया, वह सब बिल्कुल सत्य फरमाया है। मैंने अभी-अभी जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा उन सब घटनाओं को उसी प्रकार देखा है। अहो! आपका ज्ञान सीमातीत है!" इस प्रकार कहकर हर्षपूर्वक व शुद्ध बुद्धि के द्वारा उसने गुरु के पास बारह व्रतों से विस्तृत श्राद्धधर्म अंगीकार किया और 'मुझे निरन्तर मुनियों को शय्यादान करना है इस प्रकार का अभिग्रह आनंदपूर्वक ग्रहण किया। गुरुमहाराज द्वारा कथित उसके मनोहर चारित्र का श्रवण करके 'अहो! शय्यादान का कितना पुण्य है!'-ऐसा विचार करके शुद्ध अंतःकरण युक्त बनकर राजादि तथा पद्माकरादि भी जिनेश्वर कथित पुण्य की निपुणता के द्वारा शोभित होते हुए अपने-अपने घर लौट गये। अपरिमित सुकृत्यों के द्वारा जिनमत का उद्योत करते हुए और योग्य पात्र को शयनादि का दान करने में तत्पर पद्माकर चिरकाल तक शुद्धविधि से श्राद्धधर्म का पालन करके स्वर्ग में गया। इस प्रकार देव व मनुष्य के आठ भव तक शयनदान के पुण्य रूपी कल्पवृक्ष के द्वारा प्राप्त किये हुए अद्भुत भोग के समूह के द्वारा
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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