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________________ 156/श्री दान-प्रदीप एक बार उस नगर के उद्यान में समग्र आगमों के ज्ञाता और सर्व मुनियों में इन्द्र के समान गुणसागर नामक सूरि पधारे। उद्यानपालक ने राजा को आकर बताया। तब मेघ के आने पर मयूर के हर्षित होने की तरह राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। मुकुट को छोड़कर धारण किये हुए समस्त अलंकार राजा ने उद्यानपालक को दे दिये। अहो! गुरु के प्रति भाग्यवानों की भक्ति अद्भुत ही होती है। फिर समस्त सामन्तों और मंत्रियों के साथ राजा उद्यान में गुरु को वंदन करने के लिए गया। सभी ने गुरु को विधिपूर्वक वंदन किया और उचित आसन पर बैठ गये। गुरुदेव ने भी पापों का नाश करनेवाली धर्मदेशना प्रदान की। चन्द्रिका का पान करके चकोर की तरह राजा उस धर्मदेशना का पान करके प्रसन्न हुआ और पुरजनों के साथ धर्म के रंग में रंजित होकर अपने आवास की और लौट गया। फिर स्नान, जिनपूजा और भोजनादि विधि करके सुखासन पर बैठते हुए राजा ने शुद्ध बुद्धि से विचार किया-"जो हमेशा कर्णों की तृप्ति करनेवाली गुरुवाणी का पान करते हैं, उन पुरुषों को धन्य है! वे ही पुण्यशाली कहलाते हैं। उन्हीं का जन्म सफल है। जो गुरु के उपदेशानुसार हमेशा विधिपूर्वक धर्मकार्य करते हैं, वे पुरुष तो धन्यातिधन्य हैं। मेरी आत्मा तो सदैव राज्य की श्रृंखला से बंधी हुई होने से मेरे दिन तो पशु की तरह निष्फल आ-जा रहे हैं। गुरुदेव को अपने घर में स्थापित करके उनकी सेवा में तत्पर होकर उनके द्वारा बतायी गयी विधि के अनुसार धर्म का सेवन तो कोई भाग्यशाली पुरुष ही कर सकता है। निर्मल बुद्धियुक्त जो पुरुष मुनिराज को वसतिदान देता है, वह अपनी आत्मा को शीघ्र ही मुक्तिपुरी का वासी बनाता है। गुरु को वसतिदान देनेवाला स्वयं तो संसार सागर से तिरता ही है, चारों प्रकार का श्रीसंघ भी तिर जाता है। हस्तिपाल राजा वास्तव में श्लाघनीय है, जिसने अपनी दानशाला में वीरप्रभु को चातुर्मास की आज्ञा प्रदान करके अपने पुण्यसत्र का विस्तार किया। मैं तो राज्य की व्यग्रता के कारण प्रतिदिन उद्यान में विराजित मुनिवरों को भी वंदन करने के लिए नहीं जा पाता। वैसे ही अन्य लोग भी नहीं जा पाते। अतः पूज्य गुरुदेव को उद्यान से बुलवाकर अपने घर में स्थापन करवाऊँ और धर्म का श्रवण करूं। फिर उसका सेवन करके अपने जन्म को सफल बनाऊँ।" इस प्रकार का विचार करके लाखों कुशल पुरुषों के उपस्थित रहने पर भी राजा स्वयं गुरु को निमंत्रित करने के लिए गया। अहो! उसका विवेक कितना अद्भुत था! राजा ने महोत्सवपूर्वक गुरुदेव का नगर-प्रवेश करवाकर कल्पवृक्ष की तरह गुरु को अपने महल में स्थापित किया। फिर सभी सामन्तों व पुरजनों के साथ अपने महल में निरन्तर धर्मदेशना का श्रवण करने लगा। उनकी देशना रूपी ज्योति के द्वारा मनुष्यों के हृदयों में अज्ञान का नाश 1. करार।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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