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________________ 155/ श्री दान-प्रदीप मदनमंजूषा विरह वेदना से अत्यन्त दुःखित होकर पीड़ाकारी जीवन व्यतीत कर रही है और पतिव्रता धर्म का पालन कर रही है। यह सुनकर उसके अपार स्नेह का स्मरण करके राजा के हृदय में प्रेम की तरंगें उछलने लगीं। फिर उसने अपने सेवकों को भेजकर अक्का सहित मदनमंजूषा को अपने नगर में बुलवाया। जब वे नगर के समीप पहुँची, तब राजा की आज्ञा से सभी प्रधान व सामन्त उनके सन्मुख गये, क्योंकि शील सभी के द्वारा नमन के योग्य है। उसके सतीत्व को देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गये। महोत्सवपूर्वक उन्हें राजमहल में लाया गया। ग्रीष्मऋतु में सरोवर हंस-हंसिनी रहित जल की तरह उसका लावण्यता रूपी जल क्षीण हो गया था। विलास रूपी तरंगें उसमें दृष्टिगोचर नहीं होती थीं, मल रूपी कादव के द्वारा वह मलिन लग रही थी, उसके शरीर पर 'अल्प स्वर्ण की स्थिति दिखायी दे रही थी, जीर्ण और मलिन वस्त्र रूपी शैवालयुक्त वह दिखायी देती थी, उसके हाथ-पैर और नेत्र रूपी कमल अत्यन्त म्लान अर्थात् मुरझाये हुए दिखायी दे रहे थे। वेश्या होने पर अपनी प्रिया के सती के समान स्वरूप को देखकर राजा भी अत्यन्त विस्मित हुआ। पहले तो राजा ने उसे अकृत्रिम वचनों के द्वारा प्रसन्न किया। फिर मनोहर वस्त्रों और श्रेष्ठ आभरणों के द्वारा मदनमंजूषा ने भी प्रियतम की प्राप्ति से उत्पन्न हुए हर्ष रूपी अमृत के पूर के द्वारा विरह रूपी अग्नि से तप्त आत्मा को शांत किया। सति-स्त्रियों में अग्रसर उसे राजा ने पट्टरानी बनायी। गुण गौरव का स्थान होते ही हैं। पर गुणरहित मात्र कुलादि उत्तम हो, तो वह गौरव का स्थान नहीं होता। राजा ने हार की चोरी का कलंक देनेवाली अक्का का तिरस्कार किया और उसके नाक-कान काटने की आज्ञा प्रदान की। कहा भी है कि : वधबन्धच्छिदाद्यं हि प्ररूढ़ पापपादपः । इह लोके फलं दत्ते परलोके तु दुर्गतिः।। भावार्थ:-पाप रूपी वृक्ष जब वृद्धि को प्राप्त होता है, तब वध, बंधन और छेदनादि फल इसलोक में प्रदान करता है और परलोक में दुर्गति रूपी फल प्रदान करता है।। फिर मदनमंजूषा ने राजा को विनति करके अक्का को राजा के पास से छुड़वाया। मेघवृष्टि की तरह सत्पुरुषों की कृपा सर्वत्र सरीखी होती है। राजा ने वह मोतियों का हार अक्का के पास से मंगवाकर मदनमंजूषा को दिलवाया। पति पर प्रीति स्त्रियों के लिए कल्पलता के समान होती है। 1. सौभाग्य के चिह्न के रूप में कुछ स्वर्णाभूषण थे। नदी के पक्ष में सु-अर्णस् अर्थात् अच्छा जल कहीं-कहीं दिखायी देता था। 2. बहुमान।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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