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________________ 157/ श्री दान-प्रदीप हुआ। अतः उन्होंने अभंग सम्यग् धर्ममार्ग को अंगीकार किया। उनमें से कितने ही लोगों ने अत्यन्त उग्र मिथ्यात्व का त्याग करके मुक्ति रूपी स्त्री के निश्चल संकेतस्थान रूपी समकित को अंगीकार किया। कितने ही लोगों ने स्वर्ग रूपी महल पर चढ़ने की सीढ़ियों के समान श्रावक के बारह व्रतों को विधिपूर्वक ग्रहण किया। कितने ही लोगों ने सुन्दर संवेग के रंग से विशाल सम्पदा का त्याग करके चारित्र रूपी साम्राज्य को हर्षपूर्वक ग्रहण किया। कितने ही लोगों ने स्वर्ग और मोक्ष की लक्ष्मी के 'सत्यंकार रूपी सामायिक, जिनपूजा आदि अनेक नियमों को हर्षपूर्वक ग्रहण किया। इस प्रकार संख्याबंध मनुष्य विविध धर्मकार्यों में तत्पर बने। पर कुरुचन्द्र मंत्री भारेकर्मी होने से धर्म से प्रतिबोध को प्राप्त नहीं हुआ। कहा भी जगतीनयनानन्दसंपादनपरायणा। चन्द्रिका न हि चौराय रोचते रुचिराऽप्यहो।। भावार्थ:-जगत के जीवों के नेत्रों को आनन्द प्राप्त करवाने में तत्पर मनोहर चन्द्रिका भी चोर को पसन्द नहीं आती।। वह कुरुचन्द्र तारचन्द्र राजा की दाक्षिण्यता के कारण ही गुरुसेवक बनकर उनको वंदन करना, उनके सन्मुख जाना आदि विनय करता था। पुर के लोगों को धर्म में तत्पर देखकर तथा कुरुचन्द्र की धर्म में अरुचि देखकर राजा हर्ष और विषाद को प्राप्त होता था। राजा ने विचार किया-"यह हमेशा मेरे साथ ही धर्मोपदेश का श्रवण करता है, तो भी अल्प बुद्धिवाले की तरह प्रतिबोध को प्राप्त नहीं होता। समग्र कलाओं में यह अत्यन्त कुशल है, पर धर्मकार्य में उसकी कुछ भी कुशलता नहीं है। कुकर्म का विपाक कितना दुःखदायी है! विश्व को अन्धा बनानेवाले इस कुकर्म को धिक्कार है, जिसके कारण सभी का उपकार करने में तत्पर ऐसे सद्धर्म के प्रति भी जीव की अरुचि ही पैदा होती है। यह मंत्री मेरे साथ बाल्यावस्था से ही मित्रता को प्राप्त है। इसी मैत्री के कारण मैंने इसे महामंत्री का पद प्रदान किया है, पर जब तक मैं इसे धर्म से न जोड़ पाऊँ, तब तक मेरे मित्र होने का क्या फायदा? कहा भी है : उपकारो नल्पोऽपि प्रयाति व्ययमैहिकः । स्वल्पोऽप्यनल्पतामेति स पुनः पारलौकिकः ।। भावार्थ:-इस लोक संबंधी किया गया बड़ा उपकार भी क्षय को प्राप्त हो जाता है, पर परलोक-संबंधी स्वल्प भी उपकार महान फलप्रदाता बन जाता है।। सदैव मुनियों के अतिचार रहित आचार को देखकर कदाचित् इसे प्रतिबोध होगा। अतः
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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