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________________ 152/ श्री दान-प्रदीप नहीं हुई। अहो! लोभ मनुष्य का कैसा पराभव करता है? कदाचित् समुद्र पानी से तृप्त हो जाय, अग्नि काष्ठ से तृप्त हो जाय, याचकजन दान से तृप्त हो जाय, प्राणी सुख भोगने से तृप्त हो जाय और राजा भी कोष से तृप्त हो जाय, पर वेश्याजन द्रव्य से कभी तृप्त नहीं हो सकती। हे माता! तूं अपने मन में स्वप्न में भी ऐसा दुष्ट अभिप्राय धारण मत करना कि यह पुत्री अब साधारण स्त्री अर्थात् वेश्या का धर्म धारण करेगी। इतने दिनों तक मैंने जैसे-तैसे चेष्टा की, पर हे माता! अब तूं मेरी प्रतिज्ञा सुन–भले ही मैं विष खा लूंगी और अग्नि में प्रवेश कर लूंगी, पर तारचन्द्र के सिवाय अन्य कोई पुरुष मेरे अंगों का स्पर्श नहीं कर सकेगा।" इस प्रकार कहकर सती की तरह निर्मल शील का पालन करती हुई वह अति कठिन पतिव्रता धर्म का आचरण करने लगी। वह शोभा के लिए कभी भी स्नान नहीं करती थी। मधुर भोजन भी नहीं करती थी। शरीर का संस्कार नहीं करती थी। अच्छे वस्त्र भी नहीं पहनती थी। नेत्रों में अंजन नहीं आंजती थी। किसी के साथ बातचीत भी नहीं करती थी। अपने घर से बाहर नहीं निकलती थी। शरीर पर अंगराग करने में उसका जरा भी अनुराग नहीं था। संगीत में भी उसकी रुचि नहीं रही। गीत सनने में भी उसका मन नहीं लगता था। अहो! वेश्या होने के बावजूद भी उसका मन उसी स्वामी के ऊपर तल्लीन था। वह हृदय पर हार को धारण नहीं करती थी। कपाल पर तिलक भी नहीं करती थी। हाथों में कंगन नहीं पहनती थी। भुजाओं में बाजुबन्द नहीं पहनती थी। चरणों में नुपूर नहीं पहनती थी। समग्र अंगों में केवल शील रूपी आभूषण को ही धारण करती थी। उधर मध्यरात्रि में वाहन चलने के बाद प्रातःकाल होने पर तारचन्द्र कुमार जागृत हुआ। चारों तरफ जल देखकर विचार करने लगा-"क्या मैं स्वप्न देख रहा हूँ? क्या मेरी मति को भ्रम हुआ है? क्या यह कोई इन्द्रजाल है या मेरी दृष्टि को किसी ने बांध दिया है? क्या यह मेरी मूर्छावस्था है? अथवा यह किसी देव की विकुर्वणा है? या फिर मैं ये अनल्प कल्पनाएँ वृथा ही कर रहा हूं, क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही समुद्र दिखायी दे रहा है। यह वाहन भी प्रत्यक्ष है। मुझे यहां किसी कौतुक से या कपट से लाया गया है। हां! यही सत्य है। मुझे पता है कि दुष्टता को धारण करनेवाली अक्का की ही यह चेष्टा है। वेश्याओं के कपट की चतुराई का कोई माप नहीं।" इस प्रकार तारचन्द्र विचार कर ही रहा था कि वाहन के स्वामी ने अकस्मात् उसको देखकर और पहचानकर प्रसन्न होते हुए उसका आलिंगन किया। तारचन्द्र भी अपने मित्र कुरुचन्द्र को देखकर हर्षित हुआ। फिर कुरुचन्द्र ने कहा-“हे मित्र! खोये हुए चिंतामणि रत्न की तरह आज अचानक तुम्हारे दर्शन हुए हैं। हे मित्र! तुम किस-किस स्थान पर घूमे?
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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