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________________ 151/श्री दान-प्रदीप वाहन के समीप ले आयी। वाहन के स्वामी को उसने कहा-“मैं और मेरा पुत्र आ गये हैं।" __इस प्रकार कहकर कुमार को वाहन के भीतर सुला दिया और स्वयं किसी तरह सभी की नजरों से बचकर अपने घर लौट गयी। अहो! स्त्रियों का कैसा कपट! घर जाकर उसने नींद में सोयी हुई पुत्री का मोतीमय हार कहीं छिपा दिया। स्त्रियों का चरित्र महासागर की तरह गहरा होता है। प्रातःकाल होने पर मदनमंजूषा जागृत हुई। अपने प्राणेश को घर पर न पाकर वह अत्यन्त खिन्न हो गयी। उसने समग्र नगर में उसकी खोज करवायी। पर समुद्र में गिरे हुए रत्न की तरह उसका कहीं भी पता न चला। नेत्रों से अश्रुधारा बरसने से मलिन मुखवाली मदनमंजूषा अत्यन्त विह्वल होकर विलाप करने लगी-"हा! हा! श्रेष्ठ गुणों के शृंगार! सौभाग्य लक्ष्मी के निधान! हे जीवितेश! मेरा जीवन आपके ही आधीन था यह जानते हुए भी आप मुझे क्यों छोड़कर चले गये? मैंने आपका कुछ भी अविनय नहीं किया था। आपकी किसी भी आज्ञा का लोप नहीं किया। हे स्वामी फिर आपने मुझ निरपराध को सहसा कैसे छोड़ दिया? आपके बिना यह लक्ष्मी, ये आभूषण, यह अद्भुत क्रीड़ाघर और मेरा यह जीवन भी अरण्य के पुष्प की तरह निरर्थक है।" ___ इस प्रकार विलाप करता हुई वह शून्य-सी बन गयी, न भोजन करती थी, न पानी पीती थी। मात्र विरह के दुःख से शून्य मनवाली हो गयी थी। तब वृद्धा ने कहा-“हे पुत्री! तूं अस्थान पर शोक क्यों करती है? अगर वह निर्धन स्वयं ही चला गया, तो अच्छा हुआ। घर से अलक्ष्मी चली गयी। पर कहीं वह घर से कुछ लेकर तो नहीं गया?" यह कहकर मायावी अक्का संभ्रान्त बनकर पूरा घर संभालने लगी। तभी मदनमंजूषा ने अपने आभूषणों की पेटी खोलकर देखी। उसमें एक लाख स्वर्णमुद्रा का मोतीमय हार न देखा। यह जानकर अक्का ने कोप का 'आटोप करके कहा-“हे पापिनी! देख! उस दुष्ट ने हार की चोरी करके तुझे ठगकर लूट लिया। तूं इसी भाग्य की है। तेरा हार चोरी हुआ, वह अच्छा ही हुआ।" इस प्रकार उसका तिरस्कार करके अक्का खाने-पीने में प्रवृत्त हुई। कितने ही दिन बीतने के बाद मदनमंजूषा को दासियों से पता लगा कि अक्का ने किस प्रकार छल करके कुमार को यहां से निकाला। यह जानकर मदनमंजूषा ने क्रोधित होते हुए अक्का को उपालम्भ दिया-“हे माता! तूंने ही मेरे भर्तार को ठगकर छल के साथ निकाल बाहर किया। अन्यथा वह तो मरते दम तक मुझे छोड़कर जानेवाला नहीं था। हे माता! घर में न समाय-इतना धन उपार्जित करके मैंने तुझे दिया, तो भी तुझे तृप्ति 1. आडम्बर।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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