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________________ 153/श्री दान-प्रदीप तुम्हारे शरीर की निरोगता किस प्रकार हुई? यहां अकस्मात् तुम्हारा आगमन कैसे हुआ?" इस प्रकार पूछे जाने पर तारचन्द्र ने सम्मेतशिखर पर्वत पर गमन, वहां हुई निरोगता आदि वृत्तान्त से लेकर अक्का द्वारा वंचना करने तक की सारी हकीकत सुनायी। यह सुनकर आश्चर्यचकित होते हुए कुरुचन्द्र के नेत्र विकस्वर हुए। वह उसके जागृत भाग्य की प्रशंसा करने लगा। फिर राजपुत्र ने उससे पूछा-“हे मित्र! तेरा यहां आगमन किस प्रकार हुआ?" ___ मंत्रीपुत्र ने कहा-“हे मित्र! श्रावस्ती नगरी में से तुम निकले, तब तुम्हारे वियोग से दुःखी हुए राजा को महल में या उद्यान में कहीं भी रति नहीं मिली। तुम्हारी खोज करने के लिए राजा ने चारों दिशा में अपने सेवक भेजे, पर तुम्हारी कोई खबर प्राप्त नहीं हुई। अतः तुम्हारे दुःख से दुःखी मैं भी क्षणमात्र भी नहीं रह सका। अतः राजा की आज्ञा लेकर तुम्हे खोजने के लिए मैं भी राज्य से निकल गया। तुम्हारे विरह से आकुल-व्याकुल मैं अनेक देशों में भटका, पर जैसे पुण्यहीन पुरुष निधान को नहीं पा सकता, वैसे ही मैं भी तुमको खोज नहीं पाया। उसके बाद वाहन लेकर अन्य द्वीपों में खोजते हुए आज यहां अकस्मात् तुम्हारे दर्शन हुए। आज मेरा प्रयास सफल हुआ। देवों की आशीष फलीभूत हुई। मेरा भाग्य जागृत हुआ और आज तुम्हारे दर्शन हो गये। श्रावस्ती नगरी में सर्व क्षेमकुशल है, पर राजा तुम्हारे वियोग रूपी महाव्याधि से अत्यन्त पीड़ित है। अतः हे कृपासागर! तुम्हारे दर्शन से होनेवाले अमृतरस के सिंचन से पितादि के चित्त के संताप को शांत करो।" इस प्रकार कुरुचंद्र के वचन सुनकर विकस्वर बुद्धियुक्त तारचन्द्र माता-पिता के दर्शन के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हुआ। अतः वह कुरुचन्द्र के साथ शीघ्रता से समुद्र का उल्लंघन करते हुए अपने नगर की दिशा में चला । अनुक्रम से सतत प्रयाण करते हुए वे अपनी नगरी के समीप पहुँच गये। उसके समाचार मिलते ही राजा अपने समस्त सामंत, मंत्रियों आदि के साथ उसके सन्मुख आया। दूर से ही दृष्टि से सुभग अपने कुमार को देखकर पूर्णचंद्र को देखने से समुद्र की तरह राजा उल्लास को प्राप्त हुआ। कुमार भी पिता को देखकर अलौकिक आनंद को प्राप्त हुआ। उस आनंद को या तो केवली जानते थे या फिर स्वयं उसका मन जानता था। कुमार विनयावनत होकर राजा के चरणों में गिरा। पिता ने भी उसे उठाकर गाढ़ आलिंगन करके उसके मस्तक को चूमा । राजा के हृदय में वात्सल्य उछलने लगा। जन्मोत्सव की तरह पुत्र के आगमन का विराट उत्सव किया। उस समय अनेक गायकों के समूह ने कुमार की गुणश्रेणियों का गायन किया। नगरी के लोग उसके सौभाग्य की स्तुति करने लगे। वाद्यन्त्रों की ध्वनि से सर्व दिशाएँ शब्दमय हो गयीं। अनेक नटियों का नृत्य होने लगा। इस प्रकार उत्सवपूर्वक कुमार को हाथी पर बिठाकर, मस्तक पर छत्र धारण
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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