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________________ 139 / श्री दान- प्रदीप अद्भुत केवललक्ष्मी का स्वागत किया और हर्षपूर्वक वे सागर श्रेष्ठी की भी प्रशंसा करने लगे–“तुम धन्य हो ! तुम्हारा जन्म श्लाघनीय है ! तुम ही धर्म तत्त्व के ज्ञाता हो, क्योंकि महाकष्टकारक दशा को प्राप्त तथा मूढ़ता रूपी निद्रा में सुप्त इस मुनि को तुमने ही अपनी बुद्धि के प्रभाव से जागृत किया और उन्हें सद्द्बोध प्रदान किया ।" इसके बाद वे देव केवली को नमस्कार करके अपने-अपने स्थान पर चले गये । केवली भी अपने गुरु के पास चले गये और अनुक्रम से मुक्तिपद का वरण किया । अतः उत्तम पुरुष यतीश्वरों को जा दान देते हैं, वह इस लोक के उपकार का फल पाने की इच्छा से नहीं देना चाहिए, क्योंकि जिनभाषित आगमों का अभ्यास करनेवाले मुनीश्वर उपकारर - बुद्धि से उनके पास से नहीं लेते। जो मुनि अपनी आजीविका के लिए ज्योतिष शास्त्र, निमित्त शास्त्र, गणित शास्त्र, मंत्र, तंत्र, कामण, टुमण, औषधि, इन्द्रजालादि कौतुक और शांतिप्रयोगादि का उपयोग करते हैं, वे व्रतों की विराधना करने से दुर्गति को प्राप्त करते हैं । इस विषय में उपदेशमाला में कहा है जोइस निमित्त अक्खर कोउआएस भूइकम्मेहिं । करणाणुमो अणाहिअ साहुस्स तवक्खओ होइ । । भावार्थ :–ज्योतिष, निमित्त, अक्षर, कौतुक, आदेश, भूतिकर्म और किसी के कार्य की अनुमोदना करने से साधु के तप का क्षय होता है ।। 'मुधादान करनेवाले को उत्कृष्ट फल प्राप्त होता है और 'मुधा - आजीविका करनेवाले का चारित्र शुद्ध होता है। अतः दान के अंतर्गत मुधा प्रवृत्ति करनेवाले दाता और ग्रहणकर्त्ता- दोनों ही शुभगति को प्राप्त करते हैं। दसवैकालिक शास्त्र में कहा है : दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी, दोऽवि गच्छंति सुगई । भावार्थ :- मुधा दान करनेवाला दुर्लभ है और मुधाजीवी भी दुर्लभ है । मुधादानी और मुधाजीवी - दोनों ही सुगति प्राप्त करते हैं ।। मुधादान के विषय में एक उदाहरण सावधान - चित्त से सुनो कोई एक शांतबुद्धि से युक्त तापस ने किसी ग्राम में जाकर स्वभाव से ही दानी किसी वैष्णव से कहा-"हे भक्त! अगर तूं हमेशा मेरी आजीविका करे, तो मैं तुम्हारे घर पर ही रहकर चातुर्मास करूं।” 1. बदले की भावना रखे बिना दान करना । 2. निराशंसा से अर्थात् केवल रत्नत्रयी की आराधना करने के निमित्त ।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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