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________________ 140/श्री दान-प्रदीप । तब वैष्णव ने कहा-"अगर तुम मेरा कुछ भी प्रत्युपकार न करो, तो सुखपूर्वक रह सकते हो।" यह सुनकर तापस ने उसका वचन अंगीकार कर लिया। तब वैष्णव ने उसे रहने के लिए स्थान दे दिया। फिर उसके आसन, आच्छादन, शयन और भोजन आदि सभी प्रकार की वृत्ति कायम करने लगा। जिससे तपस्वी भी निरन्तर समाधिपूर्वक अपनी धर्मक्रिया करने लगा। एक बार रात्रि के समय वैष्णव के घर में चोर आया और उसका श्रेष्ठ अश्व चोरी करके ले गया। ग्राम के बाहर निकलते-निकलते प्रभात का समय हो गया। अतः चोर उस अश्व को आगे ले जाने में समर्थ न हो सका। अतः वे उस अश्व को वहीं नदी के किनारे के एक उद्यान में बांधकर चले गये। उस नदी पर स्नान करने के लिए वैष्णव के घर में रहा हुआ तापस हमेशा ही आता था। उस दिन भी आया। वहां उद्यान की तरफ से घोड़े के हिनहिनाने की आवाज सुनकर उसने अनुमान लगाया-"मेरे उपकारी वैष्णव का अश्व यहीं पर है।" फिर वह बुद्धिमान तापस स्नानादि क्रिया को शीघ्रता से निपटाकर अपना एक वस्त्र वहीं उद्यान में सूखता हुआ छोड़कर घर लौट आया। फिर अवसर होने पर वैष्णव ने तापस को भोजन के लिए बुलाया। तब कपटपूर्वक तापस ने उद्विग्न होते हुए कहा-"मैं नदी पर स्नान करने के लिए गया, तब मेरा एक वस्त्र वहीं पर छूट गया। अभी ही मुझे ध्यान आया है, अतः मैं वस्त्र लेने के लिए फिर से नदी पर जाता हूं।" यह सुनकर तापस की भक्ति में वशीभूत होकर उसने तापस को जाने से रोका और अपने सेवकों को वस्त्र लाने के लिए भेजा। जब सेवक वस्त्र लेने के लिए पहुंचे, तो वहां अपने स्वामी का अश्व देखकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे अश्व व वस्त्र को लकर घर पर आये। यह देखकर वैष्णव श्रेष्ठी ने विचार किया-"हा! हा! इस तापस ने माया के द्वारा मुझ पर प्रत्युपकार किया है। अतः अब इस प्रत्युपकारी तापस की कितनी भी भक्ति क्यों न करूं, सब व्यर्थ है, क्योंकि प्रत्युपकार करनेवाले को जो भी दान दिया जाय, वह सभी अल्प फलयुक्त ही होता है।" ऐसा विचार करके उसने तापस से कहा-"तुमने मुझ पर प्रत्युपकार किया है। अतः अब मुझे तुमसे कोई प्रयोजन नहीं है।" यह कहकर उसे विदा कर दिया। अतः जिनेश्वरों की आज्ञा को जाननेवालों को मुधादान में विशेष यत्न करना चाहिए।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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