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________________ 138 / श्री दान- प्रदीप इस प्रकार विचार करके वह श्रेष्ठी सिंहकेसरी मोदकों से भरा हुआ थाल लेकर आया और कहा - "हे मुनि! इन मनोहर सिंहकेसरी मोदकों को ग्रहण करके मुझे कृतार्थ कीजिए।” पूर्णिमा के चन्द्र की किरणों के समान उज्ज्वल दिखनेवाले उन मोदकों को देखकर जैसे कमलिनी सूर्य को देखकर विकस्वर होती है, वैसे ही मुनि की दृष्टि विकस्वर हुई। उसने अपना पात्र सामने रखा । श्रेष्ठी ने उस पात्र को मोदकों द्वारा भर दिया। उसके साथ ही अपनी आत्मा के असाधारण पुण्य द्वारा तीन भुवन को भी यश के समूह द्वारा भर दिया। फिर उत्तम श्रेष्ठी ने उस मुनि से पूछा - " और मोदक लाऊँ?” तब साधु ने कहा- "नहीं, बस इतने काफी है ।" यह सुनकर श्रेष्ठी के मन में तर्क उठा कि ये वचन स्वाभाविक जान पड़ते हैं। तो फिर अभी ये भिक्षा के लिए किस कारण आये होंगे? या फिर चित्तभ्रम के कारण अभी तक ये घूम ही रहे थे। अभी-अभी ही इनको स्वस्थता प्राप्त हुई होगी। ऐसा विचार करके श्रेष्ठी ने उनसे कहा- "मैंने अभी तक पच्चक्खाण पाले नहीं है। अतः मुझे पुरिमड्ड का पच्चक्खाण पलावें ।” तब साधु ने समय का उपयोग लगाया, तो जाना - "हा ! हा! अभी तो रात्रि का समय है ।" फिर उन्होंने ऊपर देखा, तो आकाश में असंख्य ताराओं का समूह दिखायी दिया। मस्तक पर पूर्ण चन्द्रमा देखकर उन्होंने अर्धरात्रि होने का अनुमान लगाया। यह जानकर संवेग रस में भीगते हुए उन्होंने मिथ्यादुष्कृत दिया और कहा - "अत्यन्त प्रमादी मुझे धिक्कार है! मेरी रस - लोलुपता को धिक्कार है! हे श्रेष्ठी! तुम तो मेरे गुरु, त्राण, शरण, जीवन और गतिरूप हो, क्योंकि प्रमाद रूपी अंधकूप में डूबते हुए मुझे उबारा है। ये मोदक रात्रिभक्त होने से मुझ साधु के लिए अकल्पनीय है, क्योंकि मुनि दिन में ग्रहण किये हुए आहार को दिन में ही उपयोग में ले लेते हैं ।" ऐसा कहकर उसी घर के पिछवाड़े में जाकर निर्दोष भूमि देखकर उन मोदकों को विषमिश्रित के समान मानकर परठने लगे। उस समय हर्ष को उत्पन्न करनेवाले वे मोदक भी अमोदक अर्थात् द्वेष को उत्पन्न करनेवाले बन गये, क्योंकि सभी वस्तुएँ अपने चित्त के अनुसार ही इष्ट और अनिष्ट होती हैं। उन मुनि ने केवल उन मोदकों को ही चूर-चूर नहीं किया, बल्कि शुभाशययुक्त उन्होंने चारों घनघातिक कर्मों को भी चूर डाला। उन कर्मों के क्षय होने से मेघसमूह का नाश होने पर उदय हुए सूर्य के प्रकाश के समान उन्हें निर्मल बोध रूपी केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । तत्काल देवों ने देवदुन्दुभि व पुष्पवृष्टि द्वारा उनकी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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