SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 137 / श्री दान- प्रदीप गुणों की तरह उनके शिष्यों की संख्या भी अनगिनत थी । उन्हें वंदन करने के लिए सदैव पुरजन आनंद से भरपूर होकर टोलों के रूप में आया करते थे। आचार्यवर भी पुण्य का विस्तार करनेवाली वाणी के द्वारा पुरजनों को प्रसन्न कर देते थे। एक बार उस नगरी में कोई विशाल उत्सव का दिन आया। उसमें गृहस्थ परस्पर एक-दूसरे को सरस भोजन खिला रहे थे। यह जानकर किसी ऋजु प्रकृतिवाले साधु ने विचार किया—“अच्छा हुआ कि आज मेरे पारणा है और नगर में उत्सव है। लोग भी समृद्धियुक्त, श्रद्धायुक्त और मुनि पर श्रद्धाभाव रखनेवाले हैं। अतः आज अन्य सभी प्रकार की भिक्षा का त्याग करके मुझे देदीप्यमान सिंहकेसरी मोदक ही बहरकर लाना है।" ऐसा निश्चय करके साधु गोचरी के समय पुरी के मध्य से होकर निकले। उस समय किसी स्थान पर घेवर, तो किसी स्थान पर क्षुधा का खण्डन करनेवाले मालपुए, किसी स्थान पर अन्य प्रकार के मोदक थे । इस प्रकार भांति-भांति के व्यंजन लोग मुनि को बहराने के लिए सामने लाने लगे, पर मुनि अरुचिपूर्वक उन सभी का निषेध करने लगे। लोगों को लगने लगा कि मुनि के किसी प्रकार का अभिग्रह लिया हुआ प्रतीत होता है, जिससे ये कुछ भी ग्रहण नहीं कर रहे हैं। मुनि ने संपूर्ण नगरी का चक्कर लगा लिया, पर कहीं भी सिंहकेसरिया मोदक के दर्शन नहीं हुए। काम को प्राप्त न कर सकनेवाले कामुक की तरह उन्हें अत्यन्त अरति उत्पन्न हुई, जिससे उनका चित्त भग्न हो गया। उन्हें कुछ भी उपयोग नहीं रहा । रात-दिन तक का भान नहीं रहा। इस तरह उनके अंतःकरण में और बाहर भी 'दोषोदय उत्पन्न हुआ । उपयोगरहित मनुष्य में क्या - क्या मलिनता नहीं आती? अनेक शिष्यों के परिवार से युक्त होने के कारण गुरु को भी उसके अनागमन का ज्ञान न रहा। अन्यथा वे अन्य मुनियों को भेजकर उसकी खबर जरूर लेते । उधर वह साधु घूमते-घूमते मध्यरात्रि के समय सागर श्रेष्ठी के घर पर गया । 'धर्मलाभ' की जगह उनके मुख से 'सिंहकेसरा' का उच्चारण हुआ । यह सुनकर सागर सेठ जागृत हुआ। साधु को देखकर वह विचार करने लगा - "हा! हा! यह साधु अकाल में कैसे घूम रहा है? इन्होंने स्पष्ट उच्चारणपूर्वक सिंहकेसरा शब्द बोला है। अतः सिंहकेसरी मोदक के लिए ही इनका चित्त चलायमान हुआ है - ऐसा जान पड़ता है। अतः अभी मध्य रात्रि का समय होने पर भी मैं इनको सिंहकेसरी मोदक दिखाऊँ, जिससे उसे देखकर इनका चित्त कदाचित् स्वस्थ हो जाय ।" 1. अंतःकरण में दोषोदय अर्थात् पाप का उदय और बाहर दोषोदय अर्थात् रात्रि का उदय हुआ ।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy