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________________ 136/ श्री दान-प्रदीप से ही परभव में दीर्घ और शुभायुष्य की प्राप्ति हो सकती है। इस विषय में पाँचवें अंग में कहा गया है___गौतमस्वामी श्रीमहावीर प्रभु से पूछते हैं-"हे भगवन्! जीव दीर्घायुष्य बांधनेवाले कर्म को कैसे करते हैं?" "हे गौतम! प्राणिघात किये बिना और मृषावाद का सेवन किये बिना तथा प्रकार के तपस्वी साधु अथवा श्रावक को प्रासुक व एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिमादि वस्तुओं का दान देने से जीव दीर्घायुष्य युक्त कर्म को बांधता है।" "हे भगवान्! जीव अल्पायुष्यवाले कर्म को कैसे करते हैं?" "हे गौतम! प्राणातिपात और मृषावाद का सेवन करके एवं तथाप्रकार के तपस्वी साधु अथवा श्रावक को अप्रासुक व अनेषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिमादि वस्तुओं का दान देने से जीव अल्पायुष्य युक्त कर्म को बांधता है।" अप्रासुक व अनेषणीय अशनादि का दान देने से केवल दातार के परलोक का ही अहित नहीं होता, बल्कि उस दान को ग्रहण करनेवाले साधु भी आठों कर्मों का उपार्जन करने से दुर्गति में जाते हैं। इस विषय में भी पाँचवें अंग में कहा गया है गौतमस्वामी श्रीमहावीर भगवान से पूछते हैं-हे भगवन्! आधाकर्म के दोष से युक्त अशनादि का आहार करने से साधु कितनी कर्मप्रकृतियों का बंध करता है?" "हे गौतम! आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मप्रकृतियों को बांधता है।" किसी मुनि ने किसी समय उपयोगरहित होकर अशुद्ध आहारादि लिया हो, तो उसे विधिपूर्वक निर्दोष स्थान पर परठ देना चाहिए, क्योंकि वैसा करने से शास्त्राराधना कहलाती है। इस विषय में एक दृष्टान्त है इस भरतक्षेत्र में अपनी लक्ष्मी के द्वारा अलकापुरी को कम्पित बनानेवाली चम्पा नामक महानगरी थी। उस नगरी को श्रीवासुपूज्यस्वामी ने अपने पाँचों कल्याणकों द्वारा जगत में पूज्य बनाया था। एक बार उस नगरी के उद्यान में सुव्रत नामक आचार्य पधारे। अहो! उनके 1. शुद्ध चारित्रधारी। 2. मूल में 'माहन' शब्द है, उसका अर्थ श्रावक किया जाय, तो वह तथाप्रकार का अर्थात् श्रावक की ग्यारहवीं श्रमणभूत प्रतिमा वहन करनेवाले श्रावक का अर्थ ही संभव हो सकता है। 3. जीवहिंसा। 4. यहां सात समझना चाहिए, क्योंकि आयुष्य कर्म का बंध तो कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता। वह एक ही बार बांधा जाता है। उस कदाचित्पने का आश्रय करके ही यहां आठ की संख्या लिखी गयी है। पर सामान्य रीति से सात ही समझने चाहिए।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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