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________________ 135/श्री दान-प्रदीप आयी हुई आपत्ति ज्ञात हुई, तब उन्हें अत्यन्त खेद हुआ। साधर्मिक की पीड़ा से जिसका मन न वेधा जाय, उसे कुकर्मी जानना चाहिए। रामचन्द्रजी ने लक्ष्मण को सिंहोदर राजा का निग्रह करने की तुरन्त आज्ञा प्रदान की। कौनसा धर्मी पुरुष शक्ति होने पर साधर्मिक की पीड़ा हरने में कालक्षेप करेगा? ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा प्राप्त होते ही लक्ष्मण वहां गया और युद्ध करके सिंहोदर राजा को बांधकर रामचन्द्रजी के सामने प्रस्तुत किया। यह सुनकर वज्रकर्ण राजा हर्षित होते हुए तुरन्त रामचन्द्रजी के पास आया। रामचन्द्रजी ने सिंहोदर राजा का आधा राज्य वज्रकर्ण को दिलाया। जीवनभर अवन्तिपति सिंहोदर राजा वज्रकर्ण राजा की आज्ञा में रहे-ऐसा अंगीकार करवाकर उसे मुक्त किया। अहो! साधर्मिक पर राम की कैसी अपूर्व भक्ति! कि जिससे वज्रकर्ण ने कभी राम को देखा तक नहीं था, फिर भी उस पर ऐसा अप्रतिम उपकार किया। ___ जो मनुष्य स्वयं शक्तिमान होने पर भी साधर्मिक के दुःख में उदासीनता रखता है, वह दुर्बुद्धि मनुष्य धर्म व तीर्थंकरों की विराधना करता है-ऐसा जानना चाहिए। जो पापी साधर्मिकों को आपत्ति में डालता है, वह दुःख से भरे अपार भवसागर के आवर्त में घिर जाता है। अतः धार्मिक पुरुष को साधर्मिकों का बंधु की तरह विधियुक्त और यथाशक्ति धन व शरीरादि के द्वारा उपकार करना चाहिए। संयम का साधन शरीर है। अतः शरीर जिसके द्वारा टिका रहे, ऐसे अशन, पानादि मुनियों को बहराना चाहिए। मुनियों को रत्न, सुवर्णादि का दान देना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इससे रागादि दोष उत्पन्न होते हैं। जो बुद्धिहीन मनुष्य मुनियों को धर्म का विनाश करने के कारण रूप धन को देता है, वह मुनियों के व्रतलोप से उत्पन्न हुए पाप का भागी बनता है, क्योंकि वह धनदान व्रत के लोप का हेतु है और उस व्रत के लोप में दातार की अनुमति है। अतः उससे होनेवाला पाप दातार को ही लगता है। अतः श्रद्धालु द्वारा साधु को धर्म का उपकार करनेवाले अशनादि का ही सही विधि से दान करना चाहिए। इस प्रकार का दान देने से साधु के तप, चारित्र व ज्ञान की भक्ति ही कहलाती है। इस कारण से दाता पुरुष अल्पकाल में ही तप, चारित्र व ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। शरीर के बिना संयम नहीं हो सकता और शरीर अन्नादि के बिना नहीं टिक सकता। अतः चारित्रात्मा को अन्नादि का दान देना चाहिए-ऐसा पण्डित पुरुष कहते हैं। वह अन्नादि का दान भी साधु को 'प्रासुक व एषणीय देना चाहिए, क्योंकि ऐसा दान ही स्व (दातार) तथा पर (ग्राहक) के लिए हितकारक हो सकता है। आत्महित की वांछा रखनेवाले स्वच्छ बुद्धि युक्त मनुष्य को तपस्वियों को प्रासुक और एषणीय अन्नादि प्रदान करना चाहिए, क्योंकि उस प्रकार के दान 1. अचित्त। 2. आधाकर्मादि दोषरहित।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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