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________________ 131/श्री दान-प्रदीप उसी समय सभा में एक तरफ से काफी शोर सुनायी दिया। राजा ने पूछा-"क्या हुआ?" तब प्रधान ने कहा-“हे देव! धनपालादि आपके तीन प्रमुख सेवक इस भींत पर चित्रित चित्र देखकर बेहोश होकर गिर पड़े हैं।" यह सुनकर आश्चर्यचकित व भान्त हुआ राजा उठकर उनके पास गया और कौतुक के द्वारा उन चित्रों को देखने लगा। उसमें राजकुमारादि के और स्वयं के पूर्वभव के वृत्तान्त को देखकर राजा को भी ऊहापोह करते हुए जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसे भी मूर्छा आ गयी। वह भी पृथ्वीतल पर गिर पड़ा। यह देखकर आकुल-व्याकुल होकर सेवक उनका शीतोपचार करने लगे। कुछ समय बाद राजा और उसके तीनों सेवक आँखें खोलते हुए इस प्रकार उठ खड़े हुए- मानों नींद से जागृत हुए हों। फिर सामन्त राजाओं ने जयराजा से पूछा-“हे देव! यह क्या हुआ?" तब राजा ने जीवदया के विकास द्वारा अद्भुत पूर्वभव का सर्व वृत्तान्त सम्पूर्ण सभा को सुनाया। उन तीन सेवकों को पूछा गया, तो उन्होंने भी कहा-"हम तीनों वे ही हैं, जिन्होंने बकरों के वध के द्वारा उपार्जित कर्मों के कारण प्रथम नरक को प्राप्त किया और वहां से निकलकर इस भव में आये हैं।" पूर्वभव के प्रेम के कारण राजा का मुख हर्षाश्रुओं से भीग गया। उसने आनन्दपूर्वक उन तीनों का आलिंगन किया। फिर उन तीनों ने राजा को दोनों हाथ जोड़कर विज्ञप्ति की-"हे स्वामी! दयाधर्म के प्रभाव से आपने यह विशाल साम्राज्य और दिव्य ऋद्धि प्राप्त की है। हमने तो प्राण-हिंसा के द्वारा नरक व इस भव में दासपनादि दुःखों की परम्परा को प्राप्त किया है। अतः हम आज से जीवदया का व्रत अंगीकार करते हैं, जिससे हमें भी पग-पग पर सम्पत्ति की प्राप्ति हो।" आत्मा के लिए अत्यन्त हितकारक यह वृत्तान्त सुनकर अनेक लोग जीवदया के धर्म में प्रवृत्त हुए। अमात्यादि के साथ राजा ने सद्गुरु के पास जाकर बारह व्रतों से मनोहर शुद्ध श्रावकधर्म अंगीकार किया। फिर राजा ने अपने समस्त देश में यह उद्घोषण करवायी कि-"जो भी प्राणियों का घात करेगा, उस मनुष्य का सर्वस्व छीनकर उसे दण्डित किया जायगा।" उस जयराजा ने सम्यग्दृष्टियों के नेत्रों को शीतलता प्रदान करनेवाले और देवविमानों का भी तिरस्कार करनेवाले अनेक जिनचैत्य 'कपट-रहित करवाये। उनमें मोक्षसुख रूपी 1. आशंसा-रहित होकर।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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