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________________ 132/ श्री दान-प्रदीप लक्ष्मी को बुलानेवाली दूती के समान स्वर्णादि की अनेक प्रतिमाएँ भरवायीं। आशंसा रहित होकर उसने दीनों को इस प्रकार का दान दिया कि उन्हें जीवन-पर्यन्त फिर से याचना जैसी लघुता न करनी पड़े। इस प्रकार दयाधर्म से उपार्जित विशाल राज्य को भोगते हुए उस राजा ने एक हजार वर्ष तक अच्छी तरह से श्राद्धधर्म की आराधना की। एक बार जयराजा पूर्व की तरह ही महान उत्सवयुक्त राजसभा में बैठा हुआ था। उस समय प्राणियों के विषम कर्म-परिणाम का विचार उसके हृदय में उत्पन्न हुआ-"विशाल साम्राज्य भी विषमिश्रित भोजन की तरह छोड़ने लायक ही है।" _ऐसा विचार करके महान वैराग्य तरंगें उसके अन्तर् में उछलने लगीं। अतः उसने सभा के समक्ष कहा-“हे लोगों! देखो! यह मनुष्यायु क्षणिक है। भोगों का परिणाम विरस होता है। समृद्धि देखते ही देखते विनाश को प्राप्त हो जाती है। शरीर भी रोगादि कष्टों से व्याप्त है। स्वजनादि समूह केवल स्वयं के स्वार्थ में लुब्ध होता है। आत्मा का हितार्थ साधने में अनेक विघ्न आते हैं। यमराज प्राणियों के मस्तक पर हर समय हाथ रखकर खड़ा रहता है। प्राणियों को स्वयं के किये हुए कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। फिर भी अविद्या रूपी मदिरा से उन्मत्त हुआ प्राणी आत्मा का हित करनेवाले धर्म में प्रमादी बना रहता है और आत्मा का अहित करनेवाले प्राणीहिँसादि कार्यों में अहंपूर्विका के रूप में प्रवृत्त होता रहता है। हा! हा! मूर्ख प्राणी नरक और तिर्यंचादि के असंख्य दुःखों की परवाह किये बिना ही अल्प सुख के लिए अनेक प्रकार के जीवहिंसादि अधर्म का विस्तार करते हैं। जिन्हें धर्म इष्ट है, ऐसे बुद्धिमान पुरुष अपनी आत्मा का अनिष्ट करनेवाली परहिँसा कैसे कर सकते हैं? क्योंकि जो अपनी आत्मा को प्रिय है, वही पर के साथ भी करना चाहिए। यही धर्म का जीवन है। अथवा दूसरों को उपदेश देने से क्या? मैं ही मोह के द्वारा विमूढ़ बना हुआ हूं, क्योंकि जन्तुओं के समूह का विनाश करने का कारण रूप यह राज्य है-यह जानते हुए भी मैं इसका त्याग नहीं कर रहा हूं। जिन्होंने सर्व प्राणियों के वध से निरन्तर विश्रान्ति प्राप्त की है, दयाधर्म में ही आसक्त ऐसे यतिराज धन्य हैं! प्रशंसा के पात्र हैं! दुष्ट प्राणी उनके शरीर को अत्यन्त पीड़ा प्राप्त कराते हैं, तो भी वे उन प्राणियों पर लेशमात्र भी क्रोध नहीं करते। हे आत्मा! सुख का अभिलाषी होकर असंख्य प्राणियों के वध के कारणरूप इन विषयों में तूं क्यों रक्त होता है? इन विषयों के सेवन से ही नरकादि भवों में लाखों बार अनंत दुःखों का तुमने अनुभव किया है, यह तुम्हें याद नहीं है। जिन्होंने इस नाशवान शरीर द्वारा मोक्षलक्ष्मी के कारण रूप उग्र तपस्या का आचरण किया है, पापमय उपायों के द्वारा पालन किया हुआ उनका शरीर ही सफल होता है।" इस प्रकार अंतःकरण में उछलती विशाल तरंगों से युक्त शुभ ध्यान रूपी जलधारा के
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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