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________________ 130 / श्री दान- प्रदीप राजकुमार जय को अपने राज्यपाट पर स्थापित किया। स्वयं अद्भुत वैराग्य को धारण करके प्रव्रज्या ग्रहण की। बुद्धिमान पुरुष योग्य अवसर के कार्यों में स्वयं को व पर को जोड़नेवाले होते हैं। कलाओं की निधि के समान जयराजा चन्द्र की तरह शोभित होता था, मानो उदय प्राप्त करके समग्र कुवलय को उल्लास प्राप्त करवा रहा हो। उस राजा के पूर्वजन्म के दयाधर्म रूपी कार्मण के द्वारा वश में हुए सैकड़ों शत्रु राजा स्वयमेव उसकी आज्ञा मानने लगे। जिसके राज्य में निरन्तर धर्म रूपी सूर्य उदय को प्राप्त हो, उसके राज्य में वैरी के पराभव रूपी रात्रि का संभव कहां से हो? एक बार वह मनुजेन्द्र (राजा) इन्द्र की सुधर्मा सभा के समान आश्चर्यवाली अर्थात् अद्भुत शोभायुक्त लोगों के नेत्रों को स्तम्भित करनेवाली सभा में बैठा था । उस समय मानो अंतःकरण में न समाने से शरीर के बाहर निकला हुआ पुण्य-उद्योत हो - इस प्रकार उसके स्वर्णाभरणों की कांति का समूह सभा को प्रकाशित करता था । उसके मस्तक पर श्वेत छत्र शोभित था, वह मानो दिशाओं में न समाने से वापस लौटी हुई कीर्त्ति के समूह द्वारा बनाया गया हो - ऐसा प्रतीत होता था । उसके दोनों तरफ चामर वीजती हुई स्त्रियाँ आश्चर्यचकित होती हुईं अपने कंकणों के शब्दों द्वारा मानो उसके पूर्व के पुण्यसमूह का गायन कर रही थीं। उसके चरणकमल में झुककर अनेक राजा उसके सामने हाथ जोड़कर बैठे थे, जिनके रत्नजटित मुकुटों में राजा के चरणों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता था कि उन्होंने भक्तिवश राजा के चरण-कमलों को अपने मस्तक पर धारण कर लिया हो । मूर्त्तिमान अनेक नीतिशास्त्रों द्वारा ही बनाये गये हों - ऐसे सचिव रूपी चक्रवर्त्तियों का समूह उस राजा के दोनों तरफ बैठा था। मूर्त्तिमान शृंगार रस के द्वारा मानो स्नान करवाया गया हो - ऐसी वारांगनाएँ उस सौंदर्य के स्थान रूप राजा के चारों तरफ विद्यमान थीं। अन्य भी अनेक ग्रामाधिपति, सेनाधिपति, पुरोहितादि उसी की तरफ दृष्टि करके अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठे हुए थे। बन्दीजन कर्णों को आनन्द प्रदान करनेवाली वाणी द्वारा राजा के गुणों का कीर्त्तन करनेवाली विशाल बिरुदावलि उच्च स्वर में गा रहे थे। गवैये सभाजनों के कर्णपुटों में अमृत-वृष्टि करनेवाले राजा के रसिक गीतों को गा रहे थे । 'सूक्ति बोलने में उद्यमवंत कवींद्र अभंग रस की रचना के द्वारा तरंगयुक्त विविध प्रकार के - विविध विषयों के काव्य - श्लोक बोल रहे थे। पण्डित लोग महान पुण्य को विस्तृत बनानेवाली और कुमार्ग का नाश करनेवाली भरतादि राजाओं की सत्य कथाएँ सुना रहे थे। अमृत रस के समान झरते हुए अद्भुत व विविध रसों के द्वारा वह समग्र सभा चित्रलिखित रूप से शोभित हो रही थी । 1. चन्द्र कुवलय - कुमुदिनी को और राजा कु- पृथ्वी के वलय को उल्लसित करता है। 2. नीतिशास्त्र रूपी पुद्गल । 3. नीति से भरे श्लोक |
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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