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________________ 129/श्री दान-प्रदीप ऐसा विचार करने के बाद एक बार शंखदेव ने किसी केवली से पूछा-"मैं यहां से च्यवकर कहां उत्पन्न होऊँगा?" केवली ने बताया-"विजय नामक नगर में विजयसेन नामक राजा की विजया नामक रानी की कुक्षि से तुम पुत्र रूप में उत्पन्न होओगे।" यह सुनकर उस देव ने स्वयं के प्रतिबोध के लिए विजयसेन को स्वप्न में कहा-"राजादि के तीन पुत्रों को कपट से यक्ष के मन्दिर में लेजाकर उनके द्वारा बकरों का वध करवाकर योगी ने मार डाला और चौथा श्रेष्ठीपुत्र हिंसा किये बिना ही भाग गया और अन्त में अपने पुण्य के प्रताप से अपने घर जाकर सुखी बना-इस प्रकार का चित्र तुम अपने चित्रकारों द्वारा राजसभा में चित्रित करवाओ।" ऐसा स्वप्न देखकर जागृत होता हुआ राजा विचार करने लगा-“ऐसी हकीकत पूर्व में कभी नहीं सुनी, नहीं देखी। मेरे मन में किसी प्रकार का कोई विकार भी नहीं है। तो फिर ऐसा स्वप्न मुझे क्यों आया? पर यह स्वप्न बहुत दीर्घ था । अतः मुझे लगता है कि यह स्वप्न असत्य है।" ऐसा विचार करके राजा उस स्वप्न के प्रति उदासीन रहा। दूसरी रात्रि में देव ने पुनः वही स्वप्न स्पष्ट रीति से राजा को दिखाया। प्रातःकाल होने पर राजा ने विचार किया-"इस स्वप्न का कुछ तो कारण है।" ऐसा विचार करके राजा ने अपनी राजसभा में देवकथित घटना को चित्रकारों द्वारा चित्रित करवाया। फिर आयुष्य का क्षय होने पर वह देव वहां से च्यवकर विजया रानी की कुक्षि में महाभाग्यवान पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। गर्भ के प्रभाव से रानी को पापनाशक जिनपूजा, अभयदान देना आदि दोहद उत्पन्न हुए। राजा ने रानी के सभी दोहद हर्षपूर्वक पूर्ण किये। समय पूर्ण होने पर उत्तम लग्न में रानी ने संपूर्ण गुणों के वैभव से युक्त पुत्र को जन्म दिया। उस समय राजा ने मनुष्यों को अद्वैत हर्ष प्रदान करनेवाला जन्म-महोत्सव किया। जब यह पुत्र गर्भ में था, तब राजा ने दुर्जेय शत्रुओं को भी अपने वश में कर लिया था, अतः उसका नाम राजा ने जय रखा । अनुक्रम से वय व तेज के द्वारा वृद्धि को प्राप्त कुमार चन्द्र की तरह समस्त निर्मल कलाओं को प्राप्त हुआ। बाल्यावस्था से ही उसके धनपाल, वेलंधर और धरणीधर नामक प्रीतियुक्त सेवक थे। जयकुमार ने युवावस्था से ही उत्पन्न सौभाग्य को प्राप्त किया था। फिर पिता ने उसे महोत्सवपूर्वक लावण्यवती राजकन्याओं के साथ परणाया। एक बार राजा ने किसी अशुभ स्वप्न को देखकर अपना मरण समीप जानकर
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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