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________________ 116/श्री दान-प्रदीप सम्यग् प्रकार से जाप करने लगा। उस समय उसने अपनी दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर स्थिर कर लिया था। उसका मन रूपी हँस नाभि-कमल पर रमण कर रहा था। मंत्र के एक-एक अक्षर में से झरते अमृत के प्रवाह द्वारा उस पुत्र का महान् दोषों रूपी विष का वेग शांत हो रहा था। इस प्रकार योगी की तरह शंख ने निर्भयता से पाप को दूर करनेवाले और दैदीप्यमान प्रभावयुक्त नवकार मंत्र का तीन बार जाप किया। तब अत्यन्त भयभीत बना हुआ दुष्ट आशयवाला पिशाच जोर से चिल्लाता हुआ वहां से भाग गया। पिशाच से मुक्त हो जाने के कारण पल्लीपति के पुत्र का शरीर सर्वांग से स्वस्थ हो गया। अंधकार का नाश करने से चन्द्र की तरह मानो नव जन्म प्राप्त किया हो, इस प्रकार से शोभायमान होने लगा। पुत्र की उस अवस्था को देखकर पल्लीपति अत्यन्त हर्षित हुआ। उसके नेत्र हर्षाश्रुओं से सराबोर हो गये। फिर उसने शंख से कहा-"अहो! तुम्हारी अद्भुत शक्तियों की तुलना किसी के साथ नहीं हो सकती । तुम्हारी समस्त कलाएँ परोपकार के कार्य में ही तत्पर हैं। जैसे मृग संगीत के द्वारा वश में होता है, उसी प्रकार तुम्हारे पावन आश्चर्यकारक चरित्र ने मुझे वश में कर लिया है। अतः तुम मनवांछित वरदान माँगो।" शंख ने कहा-“हे पल्लीराज! अगर तुम वास्तव में मुझ पर तुष्ट हो, तो इन दसों मनुष्यों को मुक्त करो, इन्हें जीवनदान दो और इनका स्वजनों की तरह सम्मान करके अपने-अपने घर के लिए विदा करो।" यह सुनकर पल्लीपति ने 'बहुत अच्छा' कहकर उसके वचनों को अंगीकार किया। उनके साथ भाता देकर बंधुओं की तरह सम्मान करके उन्हें विदा किया। पर अत्यन्त आग्रह करके शंख को कितने ही दिनों तक निष्कपट भाव से अपने ही पास रखा और उसकी अत्यन्त भक्ति की। अनुक्रम से दोनों में अत्यन्त प्रीति उत्पन्न हुई। तब एक बार शंख ने उसे उपदेश दिया-"सर्व पापों के स्थान रूप प्राणघात तुम क्यों करते हो? निर्दय मनुष्य हाथ में शस्त्र लेकर निःशस्त्र, निरपराधी और शरणरहित प्राणियों का हरण करते हैं, जो महापाप है। एक कांटा चुभ जाने पर हमें स्वयं असह्य कष्ट का अनुभव होता है, ऐसा जानने के बाद कौन बुद्धिमान तीक्ष्ण शस्त्रों के द्वारा प्राणिघात करेगा? हे राजा! दीर्घायुष्य का प्राप्त होना, शरीर की निरोगता रहना, सौभाग्य प्राप्त होना और विश्वमान्य होना-ये सभी अहिँसा के ही फल जगत में दिखायी देते हैं। जो मनुष्य मृत्यु के भय से भयभीत बने प्राणियों को अभयदान देता है, वह अभयसिंह की तरह निर्भयता को प्राप्त होता है।" तब पल्लीपति ने पूछा-“हे भद्र! वह अभयसिंह कौन था? उसकी कथा मुझे सुनाओ।" तब श्रेष्ठीपुत्र शंख ने उसे कथा सुनाना प्रारम्भ किया-"इस भरतक्षेत्र में उद्यानों से मनोहर कुशस्थल नामक एक ग्राम है। उस ग्राम में नाम व स्वभाव से भद्र भद्रक नामक
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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