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________________ 117/श्री दान-प्रदीप एक कुलपुत्र रहता था। एक बार वहां मनुष्यों का विनाश करनेवाला महाभयंकर दुष्काल प्रवृत्त हुआ। अतः अन्न के अभाव में अत्यन्त खिन्न होते हुए उसने विचार किया-"अरण्य में रहनेवाले मृगादि को मारकर मैं मेरा जीवन चलाऊँ।" जिसका चित्त धर्म से विमुख हो, उसकी बुद्धि सन्मार्ग का अनुसरण करनेवाली कैसे हो सकती है? वह पापी भद्रक 'मुद्गर लेकर वन में गया। वहां उसने निःशंक होकर एक निर्दोष खरगोश पर मुद्गर फेंका। उस मुद्गर को आता देखकर वह शशक मृत्यु के भय से तुरन्त वहां से भाग गया। उसने फिर उसके पीछे से निशाना साधकर मुद्गर फेंका, पर फिर भी वह शशक जी-जान लगाकर भाग रहा था। इस प्रकार बार-बार मुद्गर के वार से बचते-बचते वह खरगोश अन्य कोई शरण न मिलने से प्रतिमाधारी किसी मुनि के चरणों में जाकर छिप गया। उस समय मुनि के तप के प्रभाव से प्रसन्न वनदेवताओं ने उस शशक के आड़े एक स्फटिक की भींत की विकुर्वणा कर दी। उस भद्रक ने फिर से मुद्गर फेंका, तब वह उस स्फटिक की दिवार से टकराकर वापस लौटकर भद्रक के कपाल में वज्र की तरह टकराया। उसके घात से वह व्यथा को प्राप्त हुआ। उसका सम्पूर्ण शरीर रक्त की धाराओं से व्याप्त हो गया। वायु के प्रबल आघात से उक्षड़े हुए वृक्ष की तरह वह मूर्छित होकर धराशायी हो गया। फिर मित्र की तरह वन की शीतल वायु के उपचार से चैतन्य होकर उसने आँखें खोलीं, तो अपने सन्मुख मुनि को देखा। उनके शांत स्वरूप को देखकर उसकी दुष्ट बुद्धि का विनाश हुआ। उसने विचार किया-“हा! हा! मेरे दुष्ट कर्मों का फल मुझे इसी भव में दुःखदायी रूप में मिल गया है। मेरे अभी भी कुछ पुण्यों का उदय है कि किसी ने अदृश्य रहकर इन मुनि की मेरे मुद्गर से रक्षा की। अन्यथा प्रतिमा में रहे हुए मुनि की घात हो जाती। उससे मुझे इतना पाप लगता कि सातवीं नरक में भी मुझे स्थान नहीं मिलता।" इसके बाद कृपानिधान मुनिवर ने प्रतिमा पारकर कहा-“हे भद्र! सर्व आपत्तियों के स्थान रूप प्राणिघात को तूं क्यों करता है? कुबुद्धियुक्त जो मनुष्य मांस का लोलुपी बनकर प्राणी की हिंसा करता है, वह विविध दुर्गतियों में दुःखों का स्थान बनता है और सद्बुद्धियुक्त जो पुरुष सर्व प्राणियों पर दयाभाव धारण करता है, वह सर्व आपत्तियों का नाश करके संपत्ति को प्राप्त करता है।" यह सुनकर भद्रक को विवेक प्राप्त हुआ। उसने कहा-"हे प्रभु! मैं आज से जीवन–पर्यन्त जीवहिँसा नहीं करूंगा।" तब मुनि ने निःसंग होते हुए भी उसे धर्म में दृढ़ करते हुए कहा-“हे भद्र! तूं धन्यवाद 1. गोले के आकारवाला शस्त्र।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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