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________________ 103/श्री दान-प्रदीप करें। अब मैं अभयदान के अद्भुत माहात्म्य को कहता हूं-अभय दो प्रकार का है-देश से और सर्व से । मन, वचन और काया रूपी तीनों योगों के द्वारा करना, करवाना और अनुमोदन करना रूप तीन करण के द्वारा त्रस व स्थावर-सभी जीवों के वध से विरत होना सर्वथा अभयदान कहलाता है। यह सर्व से अभयदान सर्व-संग का त्याग करनेवाले मुनियों को ही संभव है, क्योंकि वे ही छ: काया के जीवों के प्राणों के रक्षण का व्रत ग्रहण किये हुए होते हैं। केवल निरपराधी त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिँसा करने में दो करण–तीन योगादि भेदों से विरति ग्रहण की हो, तो वह देश से अभयदान कहलाता है। शुद्ध सम्यक्त्वधारी गृहस्थ ही इस भेद के अधिकारी होते हैं, क्योंकि वे स्थूल प्राणियों की हिंसा का त्याग करते हैं। जो अभयदान अक्षय सुख-सम्पत्ति (मोक्ष-सुख की प्राप्ति) का साक्षात् कारण है, उस अभयदान को देने में कौनसा बुद्धिमान पुरुष उद्यम नहीं करेगा? दुर्भाग्यशीलता, अंगविकलता, दुर्गति और कुष्ठादि रोगों का होना हिंसा का ही परिणाम है। यह जानकर कौन पापभीरु पुरुष उस हिँसा का आदर करेगा? मोक्ष की वांछा रखनेवाले पुरुष को कभी भी प्रयोजन के बिना स्थावर जीव की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए, तो फिर त्रस की हिंसा तो कैसे योग्य हो सकती है? मृत्यु को सामने देखने के बाद अगर किसी प्राणी को जीवनदान मिलता है, तो उसे जैसी प्रसन्नता होती है, वैसी प्रसन्नता विशाल राज्य मिलने के बाद भी संभव नहीं है। एक चींटी से लेकर राजा-महाराजा तक भी सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं। मरना कोई नहीं चाहता। अतः बुद्धिमानों के लिए अभयदान से श्रेष्ठ कोई धर्म नहीं हो सकता। इस विषय में आचारांग सूत्र में भी कहा है-सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं-मैं तुम्हे कहता हूं कि जो अरिहंत भगवंत अतीतकाल में हो गये हैं, जो वर्तमानकाल में विद्यमान हैं और जो आगामीकाल में उत्पन्न होंगे, वे सभी इस प्रकार कहते हैं, कहते थे, कहेंगे, प्ररूपणा करते हैं, करते थे, करेंगे, प्रतिपादन करते हैं, करते थे, करेंगे, उपदेश करते हैं, करते थे, करेंगे कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्व हिँसा करने के योग्य नहीं है, संघट्टे के योग्य नहीं है और उपद्रव करने के योग्य नहीं है। यही धर्म ध्रुव, नियत और शाश्वत है। ऐसा लोकालोक के ज्ञाता सर्वज्ञ कहते हैं। पुराण, स्मृति, वेदादि अन्य शास्त्र भी विसंवाद के बिना ही अभयदान की मुख्यता स्पष्ट रूप से कहते हैं। कपिल नामक ऋषि ने भी एक लाख श्लोक-प्रमाण धर्मशास्त्र के ग्रंथ का मंथन करके राजा के सामने “सर्व धर्मों में दयाधर्म ही प्रधान है। इस प्रकार श्लोक के एक ही पाद द्वारा धर्म का स्वरूप दर्शाया था। इस विषय में आवश्यक नियुक्ति में कहा है कि :
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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