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________________ 104/श्री दान-प्रदीप जिन्ने भोयणमत्तेओ, कविलो पाणिणं दया। विहस्सई अविस्सासो, पंचालो थीसु मद्दवम्।। भावार्थ :-आत्रेय ऋषि वैद्यक शास्त्र का सार बताते हुए कहते हैं-पूर्व में भोजन किया हुआ अन्न जीर्ण हो जाय, तब भोजन करना चाहिए। धर्मशास्त्र का सार बताते हुए कपिल ऋषि कहते हैं-प्राणियों पर दया रखनी चाहिए। राजनीति शास्त्र का सार बताते हुए बृहस्पति कहते हैं-किसी पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। कामशास्त्र का सार बताते हुए पांचाल ऋषि कहते हैं-स्त्री पर कोमलता रखनी चाहिए। श्रीशांतिनाथ जिनेश्वर ने पूर्वभव में एक कबूतर की रक्षा के लिए बाज पक्षी को अपनी जांघ का मांस काट-काटकर दिया था। अहो! अश्व की रक्षा करने के लिए श्रीमुनिसुव्रतस्वामी प्रतिष्ठान नगरी से विहार करके 60 योजन दूर स्थित भरुच एक ही रात्रि में आये थे। श्रीमहावीरस्वामी ने भी लोगों को अभयदान देने के लिए ही सम्पूर्ण रात्रि शूलपाणि यक्ष द्वारा की गयी विशाल अगणित व्यथाओं को सहन किया था। इस प्रकार अभयदान के लिए तीर्थंकरों ने भी यत्न किया था। अतः यथाशक्ति अन्य मनुष्यों को भी अभयदान में उद्यम करना चाहिए। दीर्घ आयुष्य, स्थिरता, नीरोगता, सौभाग्य, मधुर वाणी और प्रशंसा आदि सभी दया रूपी कल्पवृक्ष के फल हैं। जिसके रग-रग में अभयदान बसा हुआ है, वह अगर मात्र एक प्राणी को भी अभयदान प्रदान करता है, उसे तत्काल मोक्ष रूपी लक्ष्मी आलिंगन कर लेती है। जैसे-श्रेणिक राजा के लिए जिनपूजा के निमित्त से स्वर्णकार ने सुवर्ण के 108 यव बनाये थे। उस समय मेतार्य मुनि उस स्वर्णकार के घर पर गोचरी के लिए पधारे। उन्हें प्रतिलाभित करने के लिए वह अपने घर के भीतर गया। तभी एक क्राँच पक्षी उन यवों को खा गया। मुनि ने उसे देख लिया था। पर स्वर्णकार द्वारा पूछे जाने पर भी मुनि ने कोई जवाब नहीं दिया। मुनि पर शक हो जाने के कारण स्वर्णकार ने उनकी दुर्दशा कर डाली। पर फिर भी क्रौंच पक्षी पर दयाभाव धारण करके अभयदान देने की भावना से मुनि ने एक शब्द भी नहीं कहा और उसी समय मोक्ष लक्ष्मी का वरण किया। ___कड़वे तुम्बे का साग परठने के लिए गये धर्मरुचि अणगार ने चींटियों को अभयदान देने के लिए स्वयं ही उस साग का भक्षण कर लिया और सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। कुमारपाल राजा भी अत्यन्त प्रशंसा के पात्र हैं, जिन्होंने सर्व जीवों के अभयदान रूप अमारी का पटह अठारह देशों में बजवाया था, जिससे दो भवों के बाद ही वे मुक्तिगामी बनेंगे। अभयदान सम्पदा का हेतु है और उसका अदान आपत्ति का कारण है। इस पर शंख
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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