SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 102/श्री दान-प्रदीप लोगों ने भी उसकी अत्यन्त निन्दा की। राजा ने उसे देश से बाहर निकलवा दिया, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों का देश में रहना किसी भी प्रकार से हितकर नहीं हो सकता। राजा ने सम्पूर्ण नगरी में उद्घोषण करवा दी-“पृथ्वी पर जैन शासन ही विजयवन्त है, क्योंकि सर्व विद्याओं के निधान रूप ऐसे गुरु धर्मशासन करते हैं।" फिर वह रोहगुप्त इस भव में निन्दा-तिरस्कारादि दुःखों को सहन करते हुए मरण प्राप्त करके दुर्गति में गया। वहां वह अनंतकाल तक संसार में भ्रमण करेगा। अतः आत्महित की वांछा करनेवालों को आगम-सूत्रों का आदान-प्रदान करते समय सूत्र व अर्थ की विपरीत प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार आठ आचारों से व्याप्त श्रुत का जो बुद्धिमान पठन करता है, केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी स्वयं ही आकर उसका वरण करती है और बुद्धिरहित जो पुरुष श्रुत की अवज्ञा, प्रमाद आदि के द्वारा विराधना करता है, वह मेरी तरह अपार दुःख का वरण करता है।" यह सुनकर सभा में बैठे हुए मनुष्यों और देवों ने मुनीश्वर (धनमित्र नामक केवली) से पूछा, तब उन्होंने अपने पूर्व के चार भवों का स्पष्ट वृत्तान्त बताया। इस प्रकार उन केवली भगवान के उपदेश का श्रवण करके अनेक जनों का मन सम्यग् बोध को प्राप्त हुआ और उनकी लेश्या विशुद्ध हुई। अतः उन्होंने विधिपूर्वक ज्ञान की आराधना करके अनुक्रम से मोक्ष पद को प्राप्त किया और मुनिवर ने तो उसी भव में ही मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार धनमित्र केवली ने ज्ञान का दान करके स्व–पर का दुःखसमूह से छुटकारा किया। उनका वह ज्ञान चिरकाल तक स्थिर रहा । अतः सभी दानों में ज्ञान का दान ही प्रधान है। ज्ञानदान के फलवर्णन के द्वारा सुन्दर इस धनमित्र का पावन चरित्र सुनकर हे भव्यजनों! ज्ञानदान में अत्यन्त उद्यमशील बनना चाहिए, जिससे मोक्षलक्ष्मी शीघ्र ही प्राप्त हो सके। ।। इति द्वितीय प्रकाश।। * तृतीय प्रकाश , अभयदान का माहात्म्य जिनके अभयदान का पटह आज भी जगत को अद्वैत शब्दमय करता है, चक्रवर्ती की लक्ष्मी के स्वामी वे जिनेश्वर श्री शांतिनाथ भगवान भविक प्राणियों को अद्भुत लक्ष्मी प्रदान
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy