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________________ 98/श्री दान-प्रदीप उधर मृषा अर्थ करने से जो असंख्य पापों का भागी बना, उस पर्वतक को देवों ने नही मारा, बल्कि लोगों का तिरस्कार सहन करने के लिए जीवित रखा। फिर "सभी अनर्थों का कारण यह पर्वतक ही है, इसे धिक्कार है, इसकी विद्वत्ता को धिक्कार है और इसके बुद्धि विलास को भी धिक्कार है"- इस प्रकार उसे धिक्कारते हुए लोगों ने उसका मुँह काला करके उसे गधे पर बिठाया, असत्य अर्थ करने रूपी पाप से लेपाया हो-इस प्रकार उसके शरीर पर कीचड़ का लेप किया, ऊँची सद्गति में जाने का गमन रोका हो-इस प्रकार उसके मस्तक पर सूपड़े का छत्र बनाया, उसके अपयश की दुर्घोषणा होती हो-इस प्रकार काहलादि अशुभ वाजिंत्रों का घोष किया और दुर्गति रूपी कन्या ने प्रसन्न होकर उसके गले में वरमाला का आरोपण किया हो इस प्रकार कपालों की माला उसके गले में पहनायी। इस प्रकार से उसका शृंगार करके उसे पूरे नगर में घुमा-घुमाकर पग-पग पर उसकी ताड़ना-तर्जना करके चाण्डाल की तरह उस पापी को नगर से निकाल दिया। __उसके बाद पर्वतक ने महाकाल नामक दैत्य की आराधना करके उसकी सहायता से वेद-श्रुतियों को अन्यथा करके दुर्गति-प्रदाता होमादि कुमार्गों की स्थापना की। इस प्रकार असत्य अर्थादि करनेवाले कार्यों से उत्पन्न पापकर्म के द्वारा वह मरकर घोर नरक में गया और वहां से निकलकर अनंतकाल तक भवभ्रमण करेगा। यथार्थ अर्थ करने से नारद सर्वत्र उत्कृष्ट पूजा को प्राप्त हुआ और अनुक्रम से मोक्ष को प्राप्त किया। इस प्रकार सत्य अर्थ कथन और मिथ्या अर्थ कथन के फल का श्रवण करके हे बुद्धिमान भव्यों! किसी भी वचन की असत्य व्याख्या नहीं करनी चाहिए। उसमें भी जिनेश्वरों के कथन को तो लेशमात्र भी अन्यथा नहीं करना चाहिए। व्यंजन और अर्थ-जो बुद्धिमान पुरुष इष्ट अर्थ की सिद्धि चाहता हो, उसे श्रुत के व्यंजन व अर्थ को यथार्थ रीति से पढ़ना चाहिए। उसे थोड़ा-सा भी अन्यथा प्रकार से नहीं पढ़ना चाहिए और न ही कहना चाहिए । व्यंजन व अर्थ को थोड़ा भी अन्यथा प्रकार से पढ़ने में अलग-अलग दोष बताये हैं, उन्हीं को यहां विशेष रूप से जानना चाहिए, क्योंकि एक-एक में जो दोष हैं, उन्हें इकट्ठा करने से वे दुगुने हो जाते हैं। श्रुत के विषय में उन दोनों को विपरीत करने से मनुष्य रोहगुप्त की तरह इस भव में अपकीर्ति आदि प्राप्त करता है तथा परभव में कुगति को प्राप्त करता है। उसकी कथा सुनो : इस भरतक्षेत्र में स्वर्ग के अभिमान को तोड़नेवाली अंतरंजिका नामक नगरी थी। उसमें बलश्री के नाम से प्रसिद्ध राजा राज्य करता था। उस नगरी में भूतगुहा नामक उद्यान था, जिसमे विद्याओं की क्रीड़ास्थली रूप, तीन गुप्तियों से गुप्त और इन्द्रिय-विजेता श्रीगुप्त
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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