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________________ चतुर्विधदाननिरूपण HRAREnter करना, पादस्पर्शन करना आदि क्रियात्रोंसे आदर न करनेसे, अच्छे गुणोंको ढकनेसे, समस्त नीच योनिमें भ्रमण करते हुए दुःख उठाया है । दैवसे अनेकवार उच्चकुलको प्राप्त कर भी दुराचरणसे नीचकुलमें फिर गया है । इसलिये हे जीव ! तूने अब उच्चकुलमें जन्म लिया है, लोकमें सबका हित करनेवाले जैन धर्मको प्राप्त किया है । एवं ज्ञानयुक्त शरीरको भी प्राप्त किया है । पूजा दान इत्यादि सत्कार्योको करनेकी पात्रताभी तुम में मौजूद है इस लिये पहिलेके समान नीच गतियों में जाने की इच्छा मत कर । शांति और दयाकी सेवा सदाकाल करते हुए अपना जन्म सफल कर ॥ ७० ॥ ७१ ॥ नेदं नेदमिदं न यो न कुपितः कर्ता दिक्षागते- । न्द्रादिश्रावकमानसं कलुषयन् संक्षोभयन् जायते स्वास्यात्तोज्ज्वलपवर्तिशिखया स्नेहेच्छुराखुः स्वयं ॥ स्वीयान्वाखिलदेहिनोऽपि दहतीत्यात्मीयगेहादिकं ॥७२॥ अर्थ-जो कोई भी श्रावक जिनपूजोत्सव को जाकर वहांपर कषायोद्रेकसे " यह वह नहीं, वह नहीं ” इत्यादि कषायपूर्ण वचन कहकर इंद्र, गुरु, श्रावक इत्यादि सबके चित्तको क्षभित करता है वह अपना तथा दूसरोंका अहित करता है । जिसप्रकार दीपकका तेल पीनेकी इच्छा रखनेवाला चूहा जलती हुई बत्तीको मुखमें लेकर जाते हुए अपने शरीरको एवं दूसरोंको जला देता है उसीप्रकार जिनपूजोत्सवके समयमें कषायके उद्रेकसे क्रोधित होनेवाला मनुष्य अपने तथा दूसरोंके हृदयमें क्षोभ उत्पन्न करते हुए अहित कर लेता है ॥ ७२॥ कारुण्यात्मधिया शपंति न च न ध्यंति निंदति न । स्वद्रव्यार्थिजना इवानवरत माध्यस्थभावं गताः ॥ नो जल्पति न च स्मति सुधियो धिक्कारवाचं क्वचित् । स्वप्रत्यूहधियैव धार्मिकजना निर्विघ्नपुण्यार्थिनः ॥७३॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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