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________________ ५० दानशासनम् अर्थ – कोई २ सज्जन जिनालय में जाकर करुणाबुद्धिसे किसीपर क्रोधित नहीं होते हैं । किसीकी निंदा नहीं करते हैं, किसीको शाप नहीं देते हैं, अपने आत्मद्रव्यको चाहनेवाले सुनियोंके समान शत्रुमित्रों में माध्यस्थभाव रखते हैं, कोई बडबड नहीं करते । बाह्य विचारोंकी चिंता नहीं करते । कभी किसीका विकार नहीं देते हैं । ऐसे सज्जन धार्मिक हैं । पुण्योपार्जन करनेवाले हैं ॥ ७३ ॥ यो व्ययत्यनिशं तस्य धर्मार्थ धर्मजश्रियम् || श्रीलता त्रिजगद्वृक्षमारोहति विवर्द्धना ॥ ७४ ॥ है अर्थ --जो अपने धर्म से उत्पन्न धनको धर्मके लिये व्यय करता वह अपने संपत्तिरूपी लताको तीन लोकरूपी सबसे बड़े वृक्षपर चढाता है अर्थात् मोक्षसंपत्तिको प्राप्त करता है || ७४ ॥ मिथ्यादृष्टिस्तु वेश्याजन इव सकलान्पुंस एवानुभूत्य । लब्धं देहार्थवित्त सुखमिह सततं वर्तयन्मूर्खजीवः ॥ सम्यग्दृष्टिस्तु साध्वीजन इव गुरुदत्तात्मनाथांतचित्तो ॥ योगे त्यक्त्वात्यचितां निजपतिश्चरणाराधनेकात्मवर्गः ॥ अर्थ - इस संसार में मिध्यादृष्टि वेश्यावों के समान सभी मनुष्यों के साथ व्यवहार कर इस शरीर के सुखके लिये द्रव्यको कमाते हैं; एवं अपनी मूर्खता से शरीर सुखकोही सुख समझकर पापबंध करते हैं । परंतु सम्यग्दृष्टी जीव पतित्रता स्त्रीके समान गुरुवोंके द्वारा दिये हुए व्रतोंको पालन करते हुए अपने स्वामीकी आज्ञाको शिरोधार्य करते हुए इधर उधर विचारोंको छोडकर जिनेंद्र भगवंतकी सेवा करनेमें ही दत्तचित्त रहते हैं एवं पुण्यबंध करते हैं ।। ७५ ॥ सा दत्तेधिकृतः प्रजा स च निजाधीशस्य नैजं धनं । स स्वामी निजभाग्यचिह्नमखिलं दत्वैव तं रक्षनि ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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