SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दानशासन एकाः स्वं च पराक्रम व्यवहति दुःख सुखं स्वीयनं । चाख्यात्यामयपापभोजनविधि दृष्ट्वा स्वयोषिज्जनं ॥ पूजामीक्षितुमंतरेण समयं प्रातः पुरं स्वं ययुः पातास्युर्वनिताश्च विघ्नदुरितं दत्ते न किं किं फलं ॥ ६९ अर्थ--कोई २ स्त्रियां जो महोत्सव देखने के लिए आती है अपने २ पक्षके स्त्रियों को देखकर उन से अपने पति के पराक्रम का वर्णन करने लगती हैं। उस के व्यवहार को कहती हैं। अपने सुख दुःखको कहती है । अपने को कोई रोग हुआ हो या कष्ट हुआ हो, उसे कहती है । या भोजनका समाचार कहती है, इस प्रकारकी स्त्रियां पूजा महोत्सव को न देखकर प्रातःकाल होते ही अपने २ गामको चल देती हैं। इस प्रकार पूजाकार्य में विघ्न डालनेवाली स्त्रियोंको पाप क्या फल नहीं देगा ? अपितु अवश्य देगा ॥ ६९ ॥ मत्तत्वैः परिवादनोत्सहसनात्मोत्कर्षणैः कुत्सनैः दर्दोषख्यापनभर्सनैः परयशेलोपात्मीयुद्भवैजनावर्णनयोगिरापारिभवस्थानावमानैरनभ्युत्थानांजलिकाभिवादनमुखैस्सम्यग्गुणोद्धनैः ॥७०॥ बंभ्रम्याखिलहीनयोनिषु चिरं देवादिहानेकधाप्युद्धपोच्चकुले जिन वृषमयं लब्ध्वा सबोध वपुः । कृत्वाची सकलं च दानममलं पश्चात्तु पूर्वी गति । . गंतुं वच्छिंसि जीव मा भन शमं धर्म दयां सर्वदा ॥७१ अर्थ-इस जीवने पूर्वमें अपने मानकषायसे, दूसरोंके तिरस्कार करनेसे, हंसी करनेसे, अपने उत्कर्षकी चाहसे, मन वचन कायकी नीच प्रवृत्तिसे, दूसरों के दोष प्रकट करनेसे, दूसरोंको भर्त्सना देनेसे दूसरोंके कीर्ति लोपने एवं अपने कीर्ति चाहनेसे, जैन मुश्विराके आनेपर उनको स्थान मान देकर एवं उठकर खडे होना, प्रणाम
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy