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________________ કે दानशासनम् 1 अपना चित्त लगाबो, इत्यादि, इसी प्रकार कर्मरूपीशत्रुको जीतते समय शांत चित्त से उसे जीतनेका उपाय करना चाहिये ॥ ४५ ॥ जिन पूजनोत्सव के लिये कौन योग्य है ? इंद्रोऽयं प्रेषकोऽयं किमिह सुजनसंपूजितोऽयं द्विजोऽयं । विमोऽयं ब्राह्मणोऽयं विरचितदहनप्लावकोऽयं बुधोऽयं । ज्ञात्वात्मा दृक्चरित्रो द्विजनिकरसुकर्मोपदेष्टा च कर्ता ॥ शुद्धोऽयं शिक्षकोऽयं स भवति जिनपूजोत्सवे योग्य एव ४६ अर्थ - जो षोडशाभरणको धारण कर इंद्रके समान पूजाके लिये सज्ज हुआ है, पूजासामग्री लाने ले जानेके लिये समर्थ हो, सज्जनोंके द्वारा आदरणीय हो, त्रिवर्णमें जिसका जन्म हो, पुरुषार्थीको पूर्ण करनेमें दत्तचित्त हो, ब्राह्मण हो, स्नानसंध्या, सकलीकरण इत्यादि पवित्र क्रियावों को जो करचुका हो, दर्शनचारित्र से भूषित हो, त्रैवर्णिकोंको धर्मोपदेश देनेवाला हो, निर्मल विचारवाला हो, दूसरोंको शास्त्राभ्यास करानेवाला हो, वही जिनपूजा करनेकेलिये योग्य है ॥ ४६ ॥ पूजाके भेद. भृत्यैश्व बंधुभिः पूज्यैरिद्रैर्जिनपतेः कृता । तामसी राजसी पूजा सात्विकी भवति ध्रुवं ॥ ४७ ॥ अर्थ - सेवकोंसे जो पूजा कराई जाती है वह तामसी पूजा कहलाती है, उसका फल न कुछ है । अपने बंधुवोंसे कराई जानेवाली पूजा राजसी कहलाती है, उसका फल अल्प है । पूज्य पुरुष जो गृहस्थाचार्य कहलाते हैं उनसे कराई जानेवाली पूजा सात्विकी कहलाती है । इससे महान् फल मिलता है ॥ ४७ ॥ दद्याद्दश फलान्याद्या परा शतफलान्यपि । तृतीया स्वर्गमोक्षश्रीसंगसौख्यफलान्यरं ॥ 8८ ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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