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________________ चतुर्विधदाननिरूपण अर्थ - पहिली तामसी पूजा दसवां भाग सदोष फल देगी, दूसरी राजसी पूजा सौवां भाग सदोष फल देगी, तीसरी सात्विकी पूजा स्वर्ग व मोक्षलक्ष्मीका संग कराकर अनंत सौख्यको देती है ॥ ४८ ॥ ४१ मुक्त्वा क्षुत्तृषमात्मनाथ समयं स्मृत्वा मनस्यासते । सन्नद्धाय धृतश्रियो नृपभटा जीवंति लोके यथा ॥ त्यक्त्वा लौकिकमांगिकं सुकृतिनः कार्ये तु घृत्वाशये । संतुष्टया जिनभानुनैनसतमा निर्णाशयंति धवं ॥४९॥ अर्थ - जिस प्रकार रणभूमिमें युद्ध करनेवाला वीरभट भूख प्यासकी परवाह न करके अपने स्वामिकार्य में पूर्णतया संलग्न रहता है वही यशस्वी होता है, उसी प्रकार लौकिक व शारीरिक कष्टोंको सहन कर धर्मात्मा लोग मन में संतोष धारण कर जिनपूजादिकार्य में संलग्न रहते हैं, वे अवश्यही जिनेंद्रसूर्यके प्रतापसे पापरूपी अंधकार को नष्ट करते हैं ।। ४९ ।। शारीरे जिनळांछनं स्वमनसि श्रीजैनबिंवा कृतिं । वक्त्रे श्रीजिन संस्तुति जिनपतेस्तत्व श्रुतिं कर्णयोः ॥ अक्ष्णोः श्रीजिनपोत्सवं दृढतरं संस्थाप्य ते धार्मिकाः । ध्यायतोऽत्र जिनोत्सवेषु विमलं पुण्यं सदा चिन्वते ॥५०॥ अर्थ - पूजोत्सव में प्रवृत्त मक्त शरीरके अवयवों में मानस्तंभ, चक्र आदि शुभलांछनोंको धारण कर, अपने मनमें श्रीजिनेंद्र बिंबके श्राकारको, मुखमें श्रीजिनस्तुति करते हुए, कानोंसे तत्त्वश्रवण करते हुए, आंखोंसे जिनपूजोत्सबको देखकर दृढचित्तसे - एकाग्रतासे श्री जिनपूजोत्सव करें तो अवश्य निर्मल पुण्यका संचय करते हैं ॥५०॥ १ अर्हबिंबाकृतिं चेतसि वपुषि सदा जैनलक्ष्माणि वक्त्रे । जैनस्तोत्राणि विभ्रन्न चविततनु (?) गात्रोपि जैनेंद्रपूजां ॥ संघ संवीक्ष्य तुष्टो भव भवदुरितं जीव भी नाशय त्वं । धर्मोद्यतेजसारं दह दह पंच पापाटवीं दुःखधात्रीम् ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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